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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करते हैं। ज्ञानमार्गी एक ही मार्गपर चलकर शुष्क हो जाता है और कर्ममार्गी कर्ममें ही लगा रहे तो जड़ हो जाता है। कर्मकी योग्यताको समझने के लिए ज्ञान और कर्म दोनोंका समन्वय चाहिए। अच्छे दोनों हैं, किन्तु एकके बिना दूसरा अधूरा है। पत्थर- के समान विनय किसमें है ? और पत्थरके समान कर्म भी किसमें है ? कितना जबर- दस्त ईश्वरापित कर्म है उसका ? एक दृष्टिसे पत्थरका काम चलता ही रहता है, किन्तु पत्थरको पत्थरके रूपमें मोक्ष कहाँ मिला ? पत्थरमें से उसे अहिल्या बनना चाहिए, चेतन-रूप बनना चाहिए। एक ओर पाषाणवत् बनें और दूसरी ओर ज्ञानकी मूर्ति और सो भी इस तरह कि किसीको खबर न हो कि यह ज्ञान है कि कर्म है। पूरा पुरुषार्थ तभी सिद्ध होता है। जब इन दोनोंका समन्वय हो तभी भक्ति आ मिलती है। यहाँतक तो हम यह बात सीखे कि इन दोनोंका समन्वय होना चाहिए। इन दोनोंको जान लेनेके बाद हमें सांख्य और योगमें विरोध दिखाई नहीं देगा। चौथे अध्यायका यह तात्पर्य है। जो विभिन्न यज्ञ गिनाये गये हैं, मैं उनके विस्तारमें नहीं पहुँगा ।

[ १८ ]

हठयोगी मानते हैं कि छठवां अध्याय उन्हींके लिए लिखा गया है। वे लोग ऐसा मानते हैं कि योगाभ्यास में हठयोगका स्थान होनेके कारण यह लिखा गया । में ऐसा नहीं मानता। इतना अवश्य मानता हूँ कि हठयोगका कोई-न-कोई स्थान तो है ही। आत्मदर्शनके लिए हमें सभी साधनोंका उपयोग करना चाहिए। ऐसा कहते हैं कि जिन शारीरिक क्रियाओं इत्यादिके विषयमें लिखा गया है यदि उन्हें कोई करे तो आत्मदर्शन हो जाये । कोई योगी ज्ञानदेवसे सिहपर बैठकर मिलने आया । ज्ञानदेव उससे दीवालपर बैठकर मिलने गये । किन्तु इससे क्या होता है ? यह तो योगका उपहास ही है; उसका विकृत उपयोग है। ये शारीरिक प्रक्रियाएँ ईश्वरकी दिशामें ले जाती हों, ऐसा नहीं है। उसका मूल तो मनके भीतर ही है। इसी अध्यायमें कहा गया है कि 'उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्' । अर्थात् इस अध्यायमें आत्मसंयमकी ही बात कही गई है। देहके दमनका उद्देश्य भी आत्मसंयम और मनःसंयम ही है। ये सारी क्रियाएँ मनके संयमके लिए हैं, इतना जान लेनेके बाद यदि कोई इन क्रियाओंका अभ्यास करे तो अवश्य ही उसे बहुत लाभ मिल सकता है। हमने इस सबका प्रयत्न नहीं किया, क्योंकि हमें अभीतक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो इन क्रियाओंको जानता हो । इनमें विश्वास करनेवाले और इनके प्रयोगकी सलाह देनेवाले बहुत मिले। किन्तु इन्हें जाननेवाला कोई नहीं मिला। इसलिए मैंने इस दिशामें कुछ नहीं किया। किन्तु मेरी दृष्टि इस बातके ऊपर अवश्य है। मैं इसकी चर्चा ही इसलिए कर रहा हूँ कि यदि तुममें से किसीको इस दृष्टिसे अन्वेषण करनेवाला कोई साधु पुरुष मिल जाये तो तुम उसका उपयोग कर सकते हो। हम सबके शरीर कितने अशक्त हो गये हैं। यदि हम शरीरके इस व्यायामको ठीकसे जान लें तो वह विलायतमें प्रचलित शारीरिक शिक्षासे अधिक उपयोगी सिद्ध

१. साधन-सूत्रमें क्रमांक १८ से २० तक तारीख नहीं दी गई हैं।