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'गीता-शिक्षण'

हो सकता है। निस्सन्देह छठे अध्यायमें संयम-नियमकी बात है। यह निष्काम कर्मका एक साधन अवश्य है । ज्ञानीका अर्थ शास्त्रज्ञ और योगी शब्दका अर्थ ही कर्मज्ञ है।

हम निष्काम कर्मकी स्थितिमें कब आ सकते हैं, इस अध्यायमें इसकी मर्यादा बताई गई है। आत्मसंयमके बिना निष्काम कर्म असम्भव है। जो प्रतिक्षण अपने ऊपर मर्यादाएँ लगाता रहता है, वही निष्काम कर्म कर सकता है। चोर, लुटेरा, व्यभिचारी निष्काम कर्म करनेकी बात थोड़े ही करता है। बहुतसे लोग अपने आचरणका समर्थन 'गीता 'के आधारपर करते हैं। किन्तु निष्कामता तो एक मानसिक स्थिति है और यह मानसिक स्थिति बिना प्रयत्न और बिना संयमके प्राप्त नहीं हो सकती। समत्वको वही जानता है, जिसका दाहिना हाथ यह न जानता हो कि बायाँ क्या कर रहा ‘आत्मोपम्य' ही इसे नापनेका गज है। मैं अमुकके प्रति अमुक काम कर रहा हूँ, यदि वैसा ही दूसरा मेरे प्रति करेगा तो उचित होगा अथवा नहीं, यह देखते रहना चाहिए।

त्यागके बिना निष्कामता सिद्ध हो ही नहीं सकती, यह छठवें अध्यायका रहस्य है।

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'भगवद्गीता 'के तीन विभाग किये गये हैं. -'तत्' पदके लिए छ: अध्याय, ‘त्वम् ' पदके लिए छः अध्याय और छः अध्याय 'असि' पदके लिए।

छठे अध्यायमें इन्द्रिय-दमनका मार्ग बताया गया और फिर सातवें अध्यायमें ज्ञान-विज्ञानकी बात की। विज्ञान अर्थात् विशेष ज्ञान । ज्ञानमें भगवान्‌को परा प्रकृति आ गई और विज्ञानमें अपरा प्रकृति | विज्ञानमें और क्या-क्या आता है, इसका अधिक विवेचन आठवें अध्यायमें किया गया है। सातवें अध्यायका अन्तिम श्लोक तो यही है कि जो 'अधियज्ञ', 'अधिदैव' और 'अधिभूत' यज्ञोंको करता है, वह मुझे प्राप्त करता 'अक्षर' की बात करके भगवानने कहा कि उसीका चिन्तन किया जाना चाहिए क्योंकि व्यक्ति जिसका चिन्तन करता है, वैसा ही बनता है। उन्होंने बताया कि अधिदैव अर्थात् सबसे बड़ा परब्रह्म में हूँ और फिर पूछा कि ऐसी अवस्थामें छोटी-मोटी बातों में पड़नेकी क्या जरूरत है। ईश्वरकी ही आराधना करनी चाहिए और उसीकी सेवा। किन्तु ईश्वरकी सेवा करने का क्या अर्थ है । उन्होंने तो कहा कि दृश्य और अदृश्य मैं ही हूँ । यदि बात ऐसी हो तो जो काम हम करते हैं उसका भी कर्ता ईश्वर ही है और फिर यदि वही सूत्रधार है तब फिर हम यह किसलिए मानें कि हम भी कुछ करते हैं। गंगामें जो मैला पानी आकर मिलता है वह भी पवित्र हो जाता है। इसी प्रकार मानना चाहिए कि हम जो पाप करते हैं उसका कर्ता भी ईश्वर है। क्योंकि यदि किसीमें पापवृत्ति न हो तो उसका कार्य पाप-कार्य नहीं होता। वस्तुको दी गई गति समाप्त कर दिये जानेके बाद भी वह थोड़ी देर गतिमान बनी रहती है । जैसे हम किसी वृक्षको काट दें तो उसके पत्ते थोड़ी देरतक हरे बने रहेंगे, किन्तु फिर थोड़ी ही देरके बाद मुरझाने लगेंगे। इसी प्रकार यदि गतिशील वृत्तियोंको

१. ' तत्त्वमसि' उपनिषद्का प्रसिद्ध वचन है।