पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

व्यक्ति दबा दे तो वे फिर नहीं उभरतीं। सातवें और आठवें अध्यायमें यह बताकर कि सृष्टिका स्वरूप क्या है, दृश्य जगत् कैसा है, कर्म क्या है, यह कहा गया है कि सब- कुछ ईश्वरमय है। भगवानने निष्काम कर्म करनेकी बात इतना जोर देकर क्यों कही। इन दोनों अध्यायोंमें इसे पर्याप्त विस्तारके साथ कहा गया है। पानीके अन्दर पड़ा हुआ व्यक्ति उसमें तैरता ही रहता है, किन्तु पानीको उससे कुछ लेना-देना नहीं रहता । इसी प्रकार परमात्मा करुणाका सागर है। किन्तु इसे भी कल्पना ही समझिए । ईश्वर न दानी है, न करुणाका सागर । ऐसे ही विराट् तत्त्वमें हम पड़े हुए हैं।

[२०]

नौवें और दसवें अध्यायमें एक ही बात कही गई है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि समस्त भूतोंमें मैं ही स्थित हूँ, इसलिए जो-कुछ करो मेरे प्रति समर्पित करो। इसी- लिए कहा 'मन्मना भव मद्भक्तो' । दसवें अध्यायमें अर्जुनने श्रीकृष्णसे अपनी विभू- तियाँ बतानेको कहा। सातवें अध्यायसे ही भक्तिका प्रवाह प्रारम्भ होकर बढ़ता चला जा रहा है। विभूतियोंकी बात करनेके बाद भगवान अर्जुनको अधिकाधिक प्रेरणा देते हैं कि सब-कुछ प्रभुके अर्पण किया जाये। चारों अध्यायोंमें साधकको भक्तिकी ओर ले जाया गया है। इसलिए नौवें अध्यायमें विषय 'राजविद्या' और 'राजगुह्य 'का है। हमारे जैसे, पापमें पड़े हुए, व्यक्तियोंके लिए यह एक बहुत बड़ा सहारा है। बड़ेसे-बड़े पापीको भी यहाँ सहायता देनेका आश्वासन दिया गया है। कोई वेद-मन्त्रोंका उल्लेख करके पतितोंकी सद्गति असम्भव भले ही बताये किन्तु 'गीता' ऐसा नहीं मानती । 'गीता' कहती है कि यदि बड़ेसे बड़ा पापी भी मेरे प्रति समर्पित हो जाये तो वह तर जायेगा। यह विषय गुह्य तभीतक है, जबतक उसने हमारे हृदयको स्पर्श नहीं किया है।

[२१]

[२७ नवम्बर, १९२६]
 

भगवानने अपने विश्व-रूपका दर्शन देकर बताया कि यह दर्शन वेदों आदिके ज्ञानसे युक्त व्यक्तिको नहीं हो सकता। उसे ही हो सकता है जिसका हृदय भक्तिरसमें मग्न है। यह कैसा स्वरूप रहा होगा। 'भगवद्गीता 'में मेरी तल्लीनता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। मैंने उसके प्रति आकर्षण होनेके कारण ही अर्थ समझानेकी बात स्वीकार की थी। किन्तु अभी यह आकर्षण दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इसमें कहा गया विचार अधिकाधिक आत्मसात् होता जा रहा है। विषय-लोलुप होनेके कारण हम उसका पूरा रस नहीं ले पाते । उसका वास्तविक रस तो भक्ति और अध्यात्मका रस है । जैसे-जैसे यह पचता चला जाता है और जैसे-जैसे उसका अधिकाधिक आचरण होता चला जाता है, यह रस बढ़ता जाता है। मेरी ऐसी ही स्थिति होती जा रही है। मैंने इस अध्यायमें लगनेवाले समयका अनुमान लगा लिया है। इसका पाठ

१. साधन-सूत्रके प्रथम पृष्ठपर लिखा है: २४-२-१९२६ से २७-११-१९२६ तक ।