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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कातने-सरीखे कामोंसे सन्तोषका अनुभव कर सकते हैं? क्या आप संस्कृत जानते हैं ? आपने कहाँतक शिक्षा प्राप्त की है ? आप कौन-कौनसी भाषाएँ जानते हैं ?

हृदयसे आपका,
 

श्रीयुत सी० नारायणराव

क्लर्क, आबकारी विभाग

बरहामपुर

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ११०२०) की माइक्रोफिल्मसे ।

८८. पत्र : रिचर्ड बी० ग्रेगको


आश्रम
 
साबरमती
 
२७ नवम्बर, १९२६
 

देखता हूँ कि तुम मुझपर ऋणका बोझ बढ़ा रहे हो। तुम्हारे पहले पत्रमें पूछे गये कई प्रश्नोंका जवाब देना बकाया ही है और अब मेरे सामने टॉमस पेनके उद्धरणों सहित तुम्हारा एक और पत्र आ गया। इन उद्धरणोंका उपयोग तुम्हारे सुझावके अनुसार करनेकी आशा करता हूँ। अभी मैं उन्हें पढ़ नहीं पाया हूँ ।

खद्दरपर लिखे लेखोंका तुम अपनी इच्छानुसार उपयोग कर सकते हो ।

मुझे इस बातकी खुशी है कि तुम्हें "क्या यह जीवदया है ? " शीर्षक लेख पसन्द आये ह । मुझे लगा कि चाहे मेरी बात सही लगे या न लगे, वह वास्तवमें सही ठहरे या न ठहरे, मुझे अपनी स्थिति स्पष्ट कर देनी चाहिए। इतना काफी है कि उन लेखोंमें व्यक्त विचार मेरे सुनिश्चित निष्कर्षोंको प्रस्तुत करते हैं।

तुम ध्यानसे देखो तो तुमने जो उदाहरण दिया है, उसमें निहित दोष तुम्हें दिख जायेगा। तुमने प्रतिपाल्यके प्रति अपने कर्त्तव्यकी तुलना हमला करनेवालेके नैतिक कल्याणके प्रति व्यक्तिके कर्त्तव्यसे की है। लेकिन जब कोई प्रतिपाल्यकी रक्षा कर रहा हो, उस समय हमलावरका नैतिक कल्याण खतरेमें नहीं होता। हानिकी आशंका तो प्रतिपाल्यके जीवनको ही है। और यदि हमलावर अजनबी होनेके बजाय एक ऐसा अन्य प्रतिपाल्य ही हो जो तुम्हारे संरक्षित प्रतिपाल्यसे ज्यादा सशक्त हो, तब भी तुम्हें अपने संरक्षित प्रतिपाल्यकी उस समय रक्षा करनी होगी जब उसपर हमला करने- वाला दूसरा प्रतिपाल्य हो और तुम आक्रमणकारीपर किसी अन्य तरहसे काबू करने योग्य नहीं हो। ईश्वर तुम्हारे इरादोंके अनुसार तुम्हारे कर्त्तव्यका मूल्यांकन करेगा। वस्तुतः इससे एक कदम आगे भी बढ़ा जा सकता है, और ऐसा मान सकते हैं कि

१. गांधीजी द्वारा ग्रेगको इससे पहले लिखे पत्रोंके लिए देखिए खण्ड ३१ ।

२. देखिए " स्वतन्त्रताका मूल्य ", ९-१२-१९२६ ।