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क्या यह जीवदया है ? - ८

अहिंसाधर्मीकी अक्षमता मेरे लिए दुःखदायी बन गई है। अहिंसा निर्बलता नहीं है, उसमें शक्तिका अभाव नहीं है। अहिंसा तो प्रचंड शक्ति है। उसके पूर्ण तेजको हम देख नहीं सकते, उसे सहन नहीं कर सकते। हममें से किसी-किसीको ही उसकी झाँकी-मात्र होती है ।

अहिंसा जाग्रत् आत्माका विशेष गुण है। वह दूसरे अनेक गुणोंका आधार है। इसलिए उसका पालन विचार, विवेक, वैराग्य, तपश्चर्या, समता और ज्ञान बिना असम्भव है। उसमें कायरता नहीं चल सकती। जिसे अहिंसा समझनी है, उसे हिंसामें निहित अहिंसाको समझना ही होगा ।

इस वाक्यका भले ही अनर्थ किया जाये। क्या ईश्वरके नामका अनर्थ नहीं होता ? उसके नामसे क्या हम राक्षसको नहीं पूजते ? उसके नामसे क्या कम पाप, कम हत्याएँ हुई हैं ? इससे क्या ईश्वरके नामको कोई आँच आती है ? इस कारण क्या हम ईश्वरका नाम किसी कोनेमें छिपकर लेंगे ?

कर्म-मात्र सदोष है, क्योंकि उसमें हिंसा है । तथापि कर्मके क्षयके लिए भी हम कर्म ही करते हैं। देह-मात्र पाप है तथापि देहको तीर्थक्षेत्र बनाकर उसके द्वारा हम देहमुक्तिके लिए प्रयत्न करते हैं। ठीक यही बात हिंसा-मात्रके बारेमें समझनी चाहिए ।

लेकिन, यह हिंसा कैसी हो ? उत्तर है : स्वाभाविक हो, अल्पतम हो, उसके पीछे केवल करुणा हो, विवेक हो, तटस्थता हो और वह सहज प्राप्त धर्म हो ।

इस विचारसरणीका अनुकरण करते हुए हिंसा दिन-प्रतिदिन कम होती जायेगी । इसलिए जिस हिंसाका उद्देश्य अहिंसाके क्षेत्रकी वृद्धि करना हो, जो हिंसा अनिवार्य हो, जिसका परिणाम बिना प्रयत्नके देखा जा सकता हो वह हिंसा क्षम्य होती है, कर्तव्य भी होती है। इसलिए यह कहना तनिक भी अनुचित नहीं है कि हिंसामें अहिंसा हो सकती है ।

इतना कहने के बाद आश्रममें इन प्रश्नोंका समाधान किस ढंगसे किया जा रहा है सो समझाकर मैं इस लेखमालाको समाप्त करता हूँ :

आश्रममें कुत्तोंके प्रश्नपर आश्रमकी स्थापनाके समयसे ही विचार किया जा रहा है। महाजनकी प्रवृत्तिसे उनका उपद्रव बढ़ गया है। इस उपद्रवको अत्यन्त कष्टके साथ सहन किया जा रहा है। आश्रममें हम पागल कुत्तोंको मार देते हैं । ऐसे उदाहरण दस वर्षमें दो या तीन ही हुए हैं। अन्य किसी कुत्तेकी हत्या नहीं की गई है। हाँ, उन्हें जहाँ-तहाँ खाना देना बन्द कर दिया गया है। इस नियमका यदि पूरी तरहसे पालन किया जाये तो मैं देखता हूँ कि इससे कुत्ते भी सुखी रहते हैं और हम भी। लेकिन इस नियमका पालन पूरी तरहसे नहीं हो पाता। हरएक आश्रमवासी इस नियमको समझ नहीं सका है और वे सब उसके पालनके सम्बन्धमें पूरी तरहसे जाग्रत् भी नहीं हैं। और फिर आश्रममें रहनेवाले मजदूर लोग तो भला इस नियमका पालन करेंगे ही क्यों ?

१. नगरके उन प्रतिष्ठित् व्यक्तियोंका संघ जो पिंजरापोल आदि चलाते हैं।