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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कुछेक कुत्तोंको लाचार होकर पालना पड़ता है। इस समय ऐसी दो कुतियों और उनके बच्चोंका पालन हो रहा है। बच्चोंको आवश्यक गर्मी मिले इसके लिए विशेष पेटी और टोकरीकी व्यवस्था की गई है। उन्हें दूध दिया जाता है, उनकी माँ के लिए खास खुराक बनाई जाती है ।

दूसरी ओर आवारा कुत्तोंको ले जानेके लिए हमने महाजनसे विनती की है। उसने इसे मंजूर कर लिया है, लेकिन अभीतक महाजनकी गाड़ी आई नहीं है ।

कुत्तोंके प्रति हमारा क्या धर्म है, इसके सम्बन्धमें अपने विचार मैंने सबको समझाये हैं। लेकिन इस विषयमें सबको बहुत-कुछ अपनी अन्तःप्रेरणाके अनुसार कार्य करनेकी छूट भी है। कोई मारनेके कर्त्तव्यको मुझसे ग्रहण नहीं कर सकता; परिस्थिति विशेषमें मारनेकी छूट अवश्य ले सकता है। मैंने उन्हें इसकी मर्यादाएँ ठीक-ठीक सम- झाई हैं। हर कोई अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार समझकर उसका पालन करता है और करेगा। मेरा आशय स्पष्ट रूपसे समझ में न आया हो तो उसे समझानेके लिए ही मैंने आश्रमके आचारका, जो कि इस विषय में मेरे विचारोंका अनुगामी है, उल्लेख किया है ।

स्वयं दुःख उठाकर, यहाँतक कि मृत्यु होती हो तो उसे भी स्वीकार करके दूसरोंको सुख भोगने देनेका नाम ही अहिंसाधर्म है। अमुक व्यक्ति किस हदतक यह दुःख उठानेको तैयार है, उसका अन्दाज कोई तीसरा व्यक्ति नहीं लगा सकता। धर्म एक है और अनेक भी है, क्योंकि आत्मा भी एकानेक है ।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, २८-११-१९२६

९०. भाषण : गुजरात विद्यापीठमें'

२८ नवम्बर, १९२६
 

गत वर्षकी भाँति इस वर्ष भी मैं यहाँ उपस्थित हो सका हूँ, इसे में ईश्वरका अनुग्रह मानता हूँ। जिन विद्यार्थियोंको प्रमाणपत्र और पुरस्कार मिले हैं उन्हें मैं बधाई देता हूँ और कामना करता हूँ कि उनके शुभ मनोरथ पूर्ण हों। कुछ समझ नहीं पा रहा था कि आजके इस शुभ अवसरपर मुझे क्या कहना चाहिए कि इस बीच मेरी सहायताके लिए श्री चिन्तामणि वैद्य आ गये । इस सप्ताह मुझे उनका पत्र मिला कि वे किसी कार्यवश यहाँ आ रहे हैं। तुरन्त ही मेरे मनका बोझ हल्का हो गया । उनका नाम विद्यार्थी न जानें, यह हो ही नहीं सकता। उनकी विद्वत्ता प्रसिद्ध है । उन्होंने 'महाभारत' और भारत के इतिहासपर ग्रन्थ लिखे हैं। देशसेवा उन्होंने केवल ग्रन्थोंसे ही नहीं अपितु सार्वजनिक कार्यके द्वारा भी की है। जैसा हमारा यह विद्यापीठ है वैसा ही विद्यापीठ महाराष्ट्रमें भी है, वे उसकी सेवा कर रहे हैं। वे वहाँके कुल-

१. यह भाषण गांधीजीने गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबादके दीक्षान्त समारोहके अवसरपर दिया था।