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भाषण : गुजरात विद्यापीठमे

नायक हैं। वहाँके कुलनायककी पदवी हमारे कुलनायकसे ज्यादा ऊँची है। वहाँ कुल- पति शंकराचार्य हैं। यहाँ नानाभाई' मेरे साथ सलाह-मशविरा कर सकते हैं; वहाँ तो सारा उत्तरदायित्व वैद्यराज खुद सम्भालते हैं। वे जो कहेंगे वह सुनने लायक ही होगा। फिर भी कुछ-एक बातें मुझे कहनी हैं।

आप सब देख सकते हैं कि संख्याकी दृष्टिसे विद्यापीठकी स्थिति कमजोर होती जाती है, लेकिन मैं इससे तनिक भी नहीं घबराता । १९२० में मैंने जब इस विद्या- पीठकी मंगल स्थापना की थी उस समय इस कार्यके प्रति मेरे मनमें जो श्रद्धा थी वही आज भी है। मैं तो साहसपूर्वक यह भी कह सकता हूँ कि मेरी यह श्रद्धा और भी दृढ़ होती जाती है । जगतमें संख्याबलको महत्ता है। लेकिन हमारा आन्दोलन तो गुणबलपर ही आधारित है। जहाँ संख्याबल कम हो वहाँ हतोत्साहित होनेकी जरूरत नहीं है लेकिन विशेष सावधानी तो रखनी ही पड़ती है। आज भारतमें मुट्ठी- भर अंग्रेज अधिकारी राज्य करते हैं। सोचिए, उनमें कितना आत्मविश्वास होगा ? हिन्दुस्तान में २५० जिले हैं, इसलिए २५० कलेक्टर होंगे। एकके हिस्सेमें कितने व्यक्ति आते हैं ? तथापि वह शामको टेनिस खेल सकता है और रातको आरामसे सोता है। मनमें भी उसे चिन्ता नहीं सताती । यदि हमें उसके साथ जूझना है तो हम चाहे मुट्ठी-भर ही क्यों न हों, हमें उनके जैसा आत्मविश्वास रखना चाहिए । जहाँ कार्यकर्ता हजारोंकी संख्या में हों वहाँ आलस्य अथवा प्रमाद चल सकता है। लेकिन जहाँ संख्या थोड़ी हो वहाँ तो प्रत्येकको विशेष रूपसे सावधान रहना चाहिए।

में आपको विश्वास दिलाता हूँ कि विद्यापीठके भविष्यके बारेमें मुझे लेशमात्र भी चिन्ता नहीं है। यदि आप अपने कार्य में सावधान रहेंगे तो भविष्य उज्ज्वल ही है। यदि विद्यापीठमें एक भी विद्यार्थी होगा तो भी वह अपना काम अवश्य करेगा और इस एक विद्यार्थीके लिए मैं -- कश्मीरमें भी हुआ तो वहाँसे भी -- पदवी दानके लिए यहाँ आऊँगा । आप कभी ऐसा न समझें कि उस समय मेरा उत्साह रंचमात्र भी कम होगा। मैं तो यह कह सकता हूँ कि एक ही विद्यार्थीको पदवी प्रदान करते हुए मेरे मनमें विशेष उत्साह होगा और यदि में इस काबिल हुआ तो उससे में ज्यादा गौरवका अनुभव करूंगा ।

श्री कुलनायकने मुझसे विद्यापीठको स्वतन्त्र शिक्षा पद्धतिपर चलाने की माँग की है। इस बारेमें उन्होंने जिन आदर्शोंको रखा है, उनका में स्वागत करता हूँ । दूसरे, मुझसे यह पूछा गया है कि क्या हमें पुरस्कारका प्रलोभन रखना चाहिए ? हमें तो विद्यार्थियोंको यह बताना है कि विद्या ही अपने आपमें एक पुरस्कार है। यज्ञका फल यज्ञ ही है। लेकिन इस सुझावका भी मैं स्वागत करता हूँ। किन्तु में तो अपनी मर्यादाको समझकर चलनेवाला व्यक्ति ठहरा । हमें ऐसी तेज हवाका सामना करना है कि मुझे परिवर्तन करनेकी हिम्मत नहीं होती।

विद्यापीठकी स्थापना करनेमें मैंने कोई मूर्खता नहीं की। आप भी यदि मेरे जैसा विश्वास रख सकें तो रखें। हममें जो त्रुटियाँ हैं उन्हें मैं अच्छी तरह जानता

१. नरसिंहप्रसाद भट्ट, गुजरात विद्यापीठके तस्कालीन उपकुलपति ।