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९७. पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको

वर्धा
 
कार्तिक कृष्ण १४, १९८३ [ ४ दिसम्बर, १९२६ ]
 

भाई घनश्यामदासजी,

आपका खत मीला है। खत पढ़नेमें मुझको कोई बाधा नहि आती है। यदि यूरोप न जानेमें किसी प्रतिज्ञाका भंग नहीं है तो मेरा विश्वास है कि यह समय आपका वहां जानेका नहिं है ।

आपके विजयके बारेमें तो मैं कुछ लीखना नहि चाहता। कई युद्ध ऐसे भी रहते हैं। जिसमें हारना विजय है। मैं नहिं जानता इस समय जो हुआ है आपके लीये कल्याणकर है या नहि । मेरी सलाह यह है कि तटस्थतासे एसेंब्लीमें सब चीजको देखते रहें।

मैं तो जानता हूं कि मेरे मौनसे मैंने देशकी सेवाकी है परंतु मुझे आत्मविश्वास नहि है कि अनेक दलोंको एकत्रित कर सकता हूं। मेरा दिल तो गौहती जानेसे हटता है।' मैंने श्रीनिवास आयंगार और मोतीलालजीको लीखा भी है कि मुझको छूटी दे दें। मुझको आत्मविश्वास आनेसे मैं अपने आप मेदानमें आ जाउंगा।

मैं नहिं जानता यदि मुझको कलकत्ता जाना होगा तो कहां मेरा जाना उचित होगा । यदि किसी जगह पर जानेके लीये मजबूर नहि हुआ तो आपके मार्फत रहना मुझे प्रिय होगा ।

आपका
 
मोहनदास
 

मूल पत्र (सी० डब्ल्यू० ६१४०) से ।

सौजन्य: घनश्यामदास बिड़ला

९८. सभ्यता

महादेवभाई देसाईने युवक सप्ताह के प्रसंगमें तकलीपर जो भाषण दिया था उसे में लगभग अक्षरशः प्रकाशित कर रहा हूँ, क्योंकि इस भाषणमें उनके अन्तरके उद्- गार हैं और वह जिन परिस्थितियोंमें दिया गया था वे भी उल्लेखनीय हैं। यह भाषण, भाषणकी खातिर नहीं दिया गया था। लेकिन कुछ युवक उसे सुनते-सुनते ऊब गये और उन्होंने गड़बड़ मचाना शुरू कर दिया। मैंने अनेक बार लिखा है कि इस तरह भाषणके बीचमें हल्ला-गुल्ला करनेकी प्रथा भारतवर्षकी सभ्यताको शोभा नहीं देती। इस देशमें तो जिन्हें किसीका भाषण अच्छा नहीं लगता वे उसपर ध्यान नहीं देते

१. कांग्रेसके वार्षिक अधिवेशनके लिए।

२. अहमदाबाद में नवम्बर, १९२६ में मनाया गया।