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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तकलीमें दोहरी शक्ति है, अंगको ढँकनेकी और उसका पोषण करनेकी । कारण, कातनेकी क्रिया हमें वस्त्र प्रदान करती है और इसके परिणामस्वरूप जो पैसे बचते हैं उनसे हमारी अन्न प्राप्त करनेकी शक्तिमें वृद्धि होती है। इसीलिए तकली अथवा चरखेको मैंने अन्नपूर्णाकी उपमा दी है।

तकली हमारे आलस्यको दूर करती है, हमारा तन ढाँकती है और उसका पोषण करती है। ऐसे यंत्रका तिरस्कार किसलिए ?

इसके अतिरिक्त तकली गरीबोंके साथ हमारा सम्बन्ध स्थापित करती है और हमें उनके दुःखका हिस्सेदार बनाती है ।

ऋषियोंने एक आख्यायिकाके द्वारा तिनकेकी शक्तिकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। वायु उसे उड़ा नहीं सकी, अग्नि उसे जला नहीं सकी। एक तिनकेको तुच्छ समझकर भले ही कोई उसका तिरस्कार करे लेकिन यदि असंख्य तिनके न हों तो हमें अन्न-पानी कुछ भी नहीं मिले। जो शक्ति घासके तिनकेमें छिपी हुई है वही तकलीमें भी छिपी हुई है। जिन्होंने तकलीका उपहास किया है उनसे मैं अनु- रोध करता हूँ कि वे यक्ष और देवताओंके संवादपर विचार करें। तकलीको तुच्छ मानने- वाले गरीबोंको तुच्छ समझते हैं। गरीबोंको तुच्छ माननेवाले अपने पैरोंपर कुल्हाड़ी मारते हैं, जिस डालपर वे बैठे हैं उसीकी जड़ उखाड़ते हैं। गरीब हैं इसीलिए धनी लोगोंका निर्वाह हो रहा है। यदि गरीब ही न हों तो धनीके लिए स्थान ही कहाँ रह जाता है ?

नौजवानो! आप चाहे किसी भी स्कूलमें हों, किसी भी कालेजमें हों, सहयोगी अथवा असहयोगी हों, हल्ला-गुल्ला करनेमें शामिल रहे हों अथवा उसके दुःखी प्रेक्षक रहे हों, मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप अपनी प्राचीन सभ्यताको नहीं छोड़ना, विवेकका त्याग न करना, गरीबोंके प्रति प्रेम भावको न छोड़ना । तलवार जिस तरह नाशका चिह्न है उसी तरह तकली समृद्धिका एक महत्त्वपूर्ण चिह्न है। आपने शोर- गुल रूपी तलवारका प्रयोग करके ठीक नहीं किया। तकलीका त्याग, उसकी अवगणना आपके लिए सर्वथा अनुचित है। महादेवने आपका ध्यान आपके कर्त्तव्यकी ओर आकर्षित किया है। जो कातनेका यज्ञ नहीं करते, जो उस यज्ञकी प्रसादी खादीको नहीं पहनते, वे गरीबोंको और उनके तरीकोंको नहीं जानते, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। आपको भी ऐसा ही विश्वास होना चाहिए ।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, ५-१२-१९२६