पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/४१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१०१. पत्र : आश्रमकी बहनोंको

वर्धा
 
मौनवार, ६ दिसम्बर, १९२६
 

बहनो,

अपने वचनानुसार, सुबह नाश्ता करके, पहला काम तुम्हें पत्र लिखनेका कर रहा हूँ ।

अभी सात बजने में पाँच मिनट बाकी हैं। इसलिए तुम सब अभी तो प्रार्थना- मन्दिरमें आ रही होगी। जो समय रखो, उसका पालन करना । जिसने हाजिर होना मंजूर किया है, वह आकस्मिक घटनाके सिवा जरूर हाजिर होती होगी। मैंने तो रमणीकलालको ' 'गीताजी' के एक-दो श्लोक हमेशा करानेकी सूचना दी है। परन्तु तुम अपनी इच्छाके अनुसार वाचन शुरू करवाना | लिखनेका अभ्यास कभी न छोड़ना । अक्षर हमेशा सुधारना ।

मगर यह सब धर्म नहीं, धर्म-पालनमें साधन-रूप है । धर्मकी व्याख्या तो हम जिन श्लोकोंका रोज पाठ किया करते थे, उनमें है। और हमें तो धर्म-पालन ही सीखना है। धर्म परोपकारमें है। परोपकार यानी दूसरेका भला चाहना और करना, दूसरेकी सेवा करना । इस सेवाका आरम्भ करते हुए तुम एक-दूसरेके साथ सगी बहनका-सा स्नेह रखना, एकके दुःखमें सब दुःखी होना । यह तो एक ही बात हुई । मुझे पत्र तो हर हफ्ते लिखने हैं, इसलिए अब यहाँसे अपना भाषण बन्द करता हूँ ।

दक्षाबहन, कमला बहन और चि० रुखी मजेमें हैं। सब तीसरे दर्जेमें आये, परन्तु भीड़ नहीं थी, इसलिए कष्ट नहीं हुआ। मैं अकेला ही दूसरे दर्जेमें था । लक्ष्मीदासभाई तो अपने चरखा-कार्यमें तल्लीन हो गये हैं। यहाँ 'गीताजी' के पाठमें वहाँ-जैसा ही हो गया है। विशेष तुम मेरे चि० पुरुषोत्तमके नाम लिखे पत्रमें देख लेना ।

बापूके आशीर्वाद
 

गुजराती पत्र (जी० एन० ३६२९) की फोटो-नकलसे ।


१. रमणीकलाल मोदी, आश्रमके स्कूलमें एक अध्यापक ।

२. लक्ष्मीदास पु० आसर ।