१०१. पत्र : आश्रमकी बहनोंको
बहनो,
अपने वचनानुसार, सुबह नाश्ता करके, पहला काम तुम्हें पत्र लिखनेका कर रहा हूँ ।
अभी सात बजने में पाँच मिनट बाकी हैं। इसलिए तुम सब अभी तो प्रार्थना- मन्दिरमें आ रही होगी। जो समय रखो, उसका पालन करना । जिसने हाजिर होना मंजूर किया है, वह आकस्मिक घटनाके सिवा जरूर हाजिर होती होगी। मैंने तो रमणीकलालको ' 'गीताजी' के एक-दो श्लोक हमेशा करानेकी सूचना दी है। परन्तु तुम अपनी इच्छाके अनुसार वाचन शुरू करवाना | लिखनेका अभ्यास कभी न छोड़ना । अक्षर हमेशा सुधारना ।
मगर यह सब धर्म नहीं, धर्म-पालनमें साधन-रूप है । धर्मकी व्याख्या तो हम जिन श्लोकोंका रोज पाठ किया करते थे, उनमें है। और हमें तो धर्म-पालन ही सीखना है। धर्म परोपकारमें है। परोपकार यानी दूसरेका भला चाहना और करना, दूसरेकी सेवा करना । इस सेवाका आरम्भ करते हुए तुम एक-दूसरेके साथ सगी बहनका-सा स्नेह रखना, एकके दुःखमें सब दुःखी होना । यह तो एक ही बात हुई । मुझे पत्र तो हर हफ्ते लिखने हैं, इसलिए अब यहाँसे अपना भाषण बन्द करता हूँ ।
दक्षाबहन, कमला बहन और चि० रुखी मजेमें हैं। सब तीसरे दर्जेमें आये, परन्तु भीड़ नहीं थी, इसलिए कष्ट नहीं हुआ। मैं अकेला ही दूसरे दर्जेमें था । लक्ष्मीदासभाई तो अपने चरखा-कार्यमें तल्लीन हो गये हैं। यहाँ 'गीताजी' के पाठमें वहाँ-जैसा ही हो गया है। विशेष तुम मेरे चि० पुरुषोत्तमके नाम लिखे पत्रमें देख लेना ।
गुजराती पत्र (जी० एन० ३६२९) की फोटो-नकलसे ।
१. रमणीकलाल मोदी, आश्रमके स्कूलमें एक अध्यापक ।
२. लक्ष्मीदास पु० आसर ।