१०२. पत्र : म्यूरिएल लिस्टरको
प्रिय कुमारी लिस्टर,
मैं पिछली रातको आपका पूरा पत्र पढ़ पाया । मुझे भय है कि यदि आप काफी दिनों भारतमें ठहरीं तो शायद आप उन चीजोंके सम्बन्धमें और भी ज्यादा देखेंगी, जानेंगी, जिनका आपने अपने पत्रमें वर्णन किया है। धर्म एक जटिल प्रश्न है, उतना ही जटिल जितना स्वयं जीवन । इस धर्मके नामकी ओटमें कितनी अनगल बातें हो सकती हैं, उसे देखकर आश्चर्य होता है। लेकिन आपने जो देखा है, वह तो एक गुजर जानेवाली, अस्थायी स्थिति है। नगरोंसे दूर, गाँवोंमें जो जीवन है, वह अपने ढंगसे काफी हदतक धार्मिक है; मेरी रायमें पश्चिमकी अपेक्षा ज्यादा धार्मिक है। वह जीवन सामान्य हिन्दू-धर्मका स्थायी अंग है। हिन्दू धर्मका मूल्यांकन ग्रामीणों- पर उसका जो प्रभाव है, अंततः उसीके द्वारा किया जायेगा। हिंसाका सिद्धान्त उनपर कोई असर डालनेमें युगोंसे विफल होता रहा है । इतिहासमें इन ग्रामोंके सामूहिक रूपसे हिंसामें भाग लेनेका कोई लेखा-जोखा नहीं मिलता। लेकिन इसीलिए ये पूर्णतया अहिंसात्मक हों, सो बात भी नहीं है । ये अपेक्षाकृत अहिंसात्मक अवश्य हैं। अस्तु, यह सब लिखना व्यर्थ है। सारा संसार कुछ भी करे, मुख्य बात तो यही है कि हम खुद कैसे रहते हैं। मैं दुनियाको जितना ही देखता हूँ, अपनी नगण्यताका उतना ही भान होता है और उससे ईश्वरपर और भी ज्यादा निर्भर रहना सीखता हूँ । मुझे दो पृष्ठोंसे ज्यादा नहीं लिखना चाहिए ।
अंग्रेजी पत्र (जी० एन० ६५६०) की फोटो-नकलसे ।
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