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१०४. पत्र : लालतापरशाद शादको

वर्धा
 
६ दिसम्बर, १९२६
 

प्रिय मित्र,

आपके ३० अक्तूबरके पत्रका उत्तर इससे पहले न दे सकनेके लिए क्षमा करेंगे। बहुत अधिक पत्र-व्यवहार होने की वजहसे आपका पत्र अनजाने ही एक फाइलमें अलग रख दिया गया था और पिछले सप्ताह ही वह मुझे दिया गया। प्राप्ति स्वीकार करनेमें विलम्बका यही कारण है।

सद्गुरुओंसे जाकर मिलनेके लिए जैसा आग्रह आपने किया है वैसा ही ऐसे और पत्र-लेखकोंने भी किया है, जिनका खयाल है कि उनसे मिलकर [ सच्चा गुरु प्राप्त करनेकी ] मेरी उत्कट इच्छा पूरी हो जायेगी । केवल तीन या चार दिन पहले ही मुझे मद्रास प्रेसीडेन्सीसे एक तार मिला, "तुरन्त आ जाइए, आप जैसा गुरु चाहते हैं, आपको दिखाता हूँ।" क्या मुझे वहाँ चला जाना चाहिए था ? क्या मुझे ऐसे सभी पत्रोंपर अमल करना चाहिए? मेरी रायमें गुरुकी तलाशका यह तरीका नहीं है। जब मैं यह कहता हूँ कि उचित समय आनेपर गुरु स्वयं खोजीके पास आ जायेगा तो यह किसी प्रकारके दम्भका लक्षण नहीं है, वरन् यह तो एक सुविदित सत्यका प्रकाशन ही है। आप ईश्वरकी तलाशमें धरतीपर इधर-उधर न भटकें। वह आपको अपने हृदयमें ही खोजना है। और उसी तरह पूर्ण पुरुष गुरु भी उन लोगोंको ढूंढ़ निकालता है जो पूरी विनम्रता और लगनके साथ उसकी कामना करते हैं। इसलिए मेरे सामने जो समस्या है, वह इतनी सरल नहीं जितनी आप उसे मानते हैं। और यह दुराग्रह या हठ भी नहीं है।

आपने मुझे जो अंग्रेजीकी पुस्तक भेजी है, उसको मैंने शुरू किया, लेकिन में आपको बता दूं कि मैं उसे ज्यादा नहीं पढ़ सका हूँ; इसका सीधा-सा कारण यह है कि जो काम में पहलेसे हाथमें ले चुका हूँ, उनके कारण मुझे एक पलका विश्राम या अवकाश नहीं मिलता।

हृदयसे आपका,
 

श्रीयुत लालतापरशाद शाद

कायस्थ मोहल्ला

अजमेर

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९७६१) की फोटो-नकलसे ।