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१०५. पत्र : वी० वी० दास्तानेको

वर्धा
 
६ दिसम्बर, १९२६
 

प्रिय दास्ताने,

आपका पत्र मिला । निश्चय ही आप जानते हैं कि 'आत्मकथा' का मराठी अनुवाद करनेकी मेरी अनुमति स्वामीकी रजामंदीपर निर्भर है। लेकिन मेरा खयाल है कि इसमें स्वामीकी रजामन्दी थी ।

आपने जो लिखा है, उससे मुझे लगता है कि नैतिक दृष्टिसे मुंशीजीपर केवल अपने पिताके भरण-पोषण जिम्मेदारी है। फिर रह जाते हैं उनके लड़के, उनकी पत्नी और शायद ३ छोटे बच्चे; मेरा खयाल है कि बच्चे बहुत छोटे हैं, सयाने नहीं हैं। सबसे बड़े लड़केको अपने पैरों खड़ा होनेके लिए कहना चाहिए। यह एक तरहसे लड़केके लिए भी अच्छा होगा और मुंशीजीके कंधोंसे एक बोझ उतर जायेगा । यदि लड़केकी बहू अपने पतिके साथ नहीं रह सकती तो उसे किसी आश्रममें जगह दिलाई जा सकती है, जहाँ वह अपना जीविकोपार्जन कर सकती है । १० सालके बच्चेको भी किसी आश्रममें रख देना चाहिए । मुंशीजीको खुद अपने लिए कोई उपयुक्त काम चुन लेना चाहिए और वह काम उन्हें करना ही चाहिए। मुझे नहीं मालूम कि क्या परिवारमें बहू ही गृहस्वामिनी है और घर चलाती है। ऐसा हो तो भी उसके राजी हो जानेपर लड़केसे कह दिया जाना चाहिए कि अगर वह अपनी जीविका स्वयं नहीं कमाता तो घर छोड़ दे। जो भी हो, मुंशीजीको स्वयं तो राष्ट्रपर बोझ बने रहनेपर आपत्ति होनी चाहिए; खासकर जब उसकी कोई जरूरत नहीं है ।

हृदयसे आपका,
 

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९७६२ ) की माइक्रोफिल्मसे ।