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सर्वभूतहिताय

इससे भी अधिक वजनदार दूसरी कठिनाई है, जिसे एक दूसरे पाठक पेश करते हैं। उसे संक्षेपमें यों समझाया जा सकता है:

आपने जो स्थिति पसन्द की है, मैं उसे समझता हूँ। यही एक मात्र सही स्थिति है। मगर आपका तर्क क्या ज्यादातर लोगोंके लाभवाले उपयोगिता- वादके सिद्धान्तका रूप ग्रहण नहीं कर लेता ? अगर आपकी यही स्थिति हो तो फिर आपके इस अहिंसा सिद्धान्त और उपयोगितावादमें जो अधिकांशके अधिक सुखके लिए प्राण लेते हुए नहीं हिचकता और जो अहिंसाका दम नहीं भरता, अन्तर ही क्या रह जाता है ?

पहले तो बाहरी रूपमें कर्म दोनोंके एक ही जैसे दिख सकते हैं; फिर भी आन्तरिक प्रेरणाके अनुसार उनके गूढार्थोंमें अन्तर होगा। जैसे पश्चिममें अहिंसा मनुष्य तक ही, और वह भी यथासम्भव ही, समाप्त हो जाती है। वहाँ मनुष्य जातिके माने गये लाभके लिए जिन्दा पशुओंको चीरने-फाड़नेमें, या उपयोगितावादके उसी सिद्धान्तके नामपर युद्धके सामान इकट्ठे करनेमें कोई हिचक नहीं होती। दूसरी ओर अहिंसावादी एकाध बार उपयोगितावादीके साथ विनाशके किसी कर्ममें हाथ बँटा ले सकता है किन्तु जीवित प्राणियोंको चीरने-फाड़नेमें या युद्धकी अनन्त तैयारियों में सहायता देनेके बदले वह मर जाना ही अधिक पसन्द करेगा ।

बात तो यह है कि अहिंसावादी उपयोगितावादका समर्थन नहीं कर सकता । वह तो 'सर्वभूतहिताय' यानी सबके अधिकतम लाभके लिए ही प्रयत्न करेगा और इस आदर्शकी प्राप्तिमें मर जायेगा। इस प्रकार वह मरना इसलिए चाहेगा कि दूसरे जी सकें। मरकर वह दूसरोंकी सेवाके साथ अपना कल्याण भी करेगा। सबके अधिक- तम सुखमें अधिकांशका अधिकतम सुख भी आ जाता है। और इसलिए अहिंसावादी और उपयोगितावादी कई बार एक ही रास्तेपर मिलेंगे, किन्तु अन्तमें ऐसा अवसर भी आयेगा जब उन्हें अलग-अलग रास्ते पकड़ने होंगे और किसी-किसी दशामें एक दूसरेका विरोध भी करना पड़ेगा। सच कहें तो उपयोगितावादी कभी अपनी बलि नहीं दे सकता । किन्तु अहिंसावादी तो हमेशा मिट जानेको तैयार रहेगा। सर्वभूतहित- वादी कुत्तेको मारेगा तो अपनी लाचारीके कारण मारेगा या तो फिर एकाध बार खुद कुत्तेको कष्टसे बचाने के लिए। यह निश्चय करना कि कुत्तेका लाभ किस बात में है, बहुत ही खतरनाक है, और इसलिए ऐसा करनेवाला भयानक भूलें कर सकता है। किन्तु यह आपत्ति काम करनेकी मूल प्रेरणाको प्रभावित नहीं करती। सर्वभूतहित- बादी हिंसाके क्षेत्रको सदा कमसे-कम बनायेगा | उपयोगितावादीके लिए हिंसाके क्षेत्र- की कोई सीमा नहीं है। अहिंसाके सिद्धान्तके अनुसार विचार करनेपर यूरोपीय महा- युद्ध सरासर अनुचित मालूम होता है। उपयोगितावादके अनुसार प्रत्येक पक्षने उप- योगिताके अपने विचारके अनुसार अपना पक्ष न्याय-सिद्ध कर दिया है। उपयोगितावादके सहारे जलियाँवाला बाग काण्डको भी उसके करनेवालोंने न्याय-सिद्ध कर दिखाया। ठीक इसी तर्कसे अराजक भी अपनी हत्याओंका समर्थन करते हैं। किन्तु सर्वभूत-