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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

श्रुतिविभिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना

नैको मुनिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।

धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्

महाजनो येन गतः सपन्थाः ॥

अतः धर्म जिस गुफामें रहता है, उसे वहीं पड़े रहने देना अच्छा है !

आपका,
 
एक सत्यान्वेषी
 

पाठकों को यह सुन्दर पत्र पढ़कर प्रसन्नता होगी । लेखकने मुझपर जो चोट की है वह मजेदार है। जिस चीजका बचाव नहीं किया जा सकता उसका बचाव करनेके लिए लेखककी रायमें, मैं जो तीन तरीके काममें लाता हूँ उनमें से मेरा विचार किसीका भी उपयोग करनेका नहीं है। जहांतक मैं जानता हूँ मक्कामें पैगम्बर साहबने मूर्तियोंका जो भंजन किया और औरंगजेबने जो विध्वंस किया उनमें कोई समानता नहीं है। और अगर ऐसा पता चले कि पैगम्बर साहबने कभी-कभी कुछ गलतियाँ भी कीं तो इससे यही सिद्ध होगा कि वे भी गलतियाँ कर सकते थे। तथापि इस बातसे उनकी उस महानतामें कमी नहीं आती जो उन्हें एक दैवी शक्तिसे प्रेरित सन्तके रूपमें प्राप्त है और जिनमें अधिकांश अवसरोंपर खुदाकी झलक ही मिलती थी । उन्होंने स्वयं कभी कोई ऐसा दावा नहीं किया कि उनसे कोई गलती नहीं हो सकती। वे अकसर अपने साथियोंसे परामर्श लिया करते थे। एक अवसरपर जब उन्होंने उमरसे सलाह माँगी, तो उमरने कहा कि आपका खुदासे सीधा सम्पर्क है, अतः आपको किसीसे सलाह लेनेकी जरूरत नहीं है। लिखा है कि इसपर मुहम्मदने उमरको जवाब दिया कि यदि इस अवसरपर उन्हें ईश्वरका निर्देश मिल गया होता तो वे उमरकी सलाह न माँगते । मैं जानता हूँ कि 'सत्यान्वेषी' का मन्शा सचमुच यह कहनेका नहीं है कि मैं किसी भी अटपटी बातको बिना किसी समुचित कारणके ही "आलं- कारिक कहकर टाल देता हूँ।" मैं मानता हूँ कि उनका मन्शा यह है कि में "बहसमें पड़े। " जो भी कारण हो, मैं उन्हें तथा सभी सम्बन्धित लोगोंको विश्वास दिलाता हूँ कि जब कभी मैंने किसी विवरणको आलंकारिक बताया है तब मैंने वैसा माननेके आन्तरिक और ठोस प्रमाण दिये हैं। और न फिर में किसी ग्रन्थको बिना पर्याप्त कारणके काल्पनिक या असिद्ध-प्रमाण कहकर ही ठुकराता हूँ । पत्र-लेखककी भाँति ही एक सत्यान्वेषीके नाते मुझमें अपनी गलतियाँ और अपनी सीमाएँ स्वीकार करनेका साहस है, ऐसा मेरा विश्वास है। सभी धर्म-ग्रन्थोंमें बहुतसी ऐसी बातें हैं जो मुझे चक्कर- में डालती हैं। मैं आशा करता हूँ कि किसी दिन मुझे उनके विषयमें प्रकाश मिलेगा । उस समयतक में विनम्रता और धैर्यके साथ प्रतीक्षा करना चाहता हूँ। मनुष्यके लिए सब-कुछ जानना जरूरी नहीं है।

किन्तु लेखकके पत्रका सबसे गम्भीर भाग वह है जिसमें उसने दैवी शक्तिका खण्डन किया है। मेरा उनसे कहना है कि जितनी पहेलियों और असंगतियोंके उत्तर