१२०. पत्र : शुएब कुरैशीको
प्रिय शुएब,
निग्गी [ वाली ] जमीनके सम्बन्धमें शंकरलालकी मार्फत तुमने जो कागजात भेजे थे, वे इतने दिनोंतक मेरे पास, बल्कि मेरे सामने ही, पड़े रहे। अब मैंने उन सबको सावधानीसे पढ़ लिया है। पंच लोगों या उन्हें जो भी कहा जाये, की, बैठक की रिपोर्टपर सभी पक्षके लोगोंने हस्ताक्षर नहीं किये हैं। अतएव सर्वश्री भोपटकर और दाण्डेकरका, उन्हें जो ठीक लगे सो संशोधन करना, कानूनी दृष्टिसे गलत नहीं कहा जा सकता। मैं उनके गुण-दोषोंपर विचार कतई नहीं कर रहा हूँ और मैं यह भी नहीं समझता कि मूल मसौदेसे संशोधनमें कुछ खास फर्क है।
जहाँतक में देख सकता हूँ केवल एक ही संशोधन महत्त्वका है । और वह यह है कि 'हिन्दुओंको पहलेकी भाँति हमेशा इस जमीनपर से गुजरनेका हक होना चाहिए । क्या मूल मसौदेमें जो-कुछ कहा गया था उसका यह मतलब नहीं निकाला जा सकता ?
चौथे अनुच्छेदमें उल्लिखित बैलगाड़ीके रास्तेका क्या प्रयोजन है ? क्या उसका
ऐसा उद्देश्य था कि बैलगाड़ीके रास्तेसे लोग देहू तो जा सकेंगे लेकिन पादुकातक
नहीं जा सकेंगे। हिन्दुओंका पादुकातक जानेका हक कायम रहनेकी बात मंजूर करनेके
बाद मेरी रायमें बाकी सब बातें गौण हो जाती हैं ।
यदि तुम इस मामलेमें दिलचस्पी ले रहे हो तो मैं तुम्हें सलाह दूंगा कि दस्ता- वेजोंका ध्यानसे अध्ययन करो और न्यासियोंका ठीक मार्गदर्शन करो । यदि दस्तावेजमें कही गई बातोंसे हिन्दू पंच अभीतक मोटे तौरपर सहमत हों तो मैं समझता हूँ कि समझौता हो जानेकी पूरी उम्मीद है।
आजकल तुम क्या कर रहे हो ? अखिल भारतीय चरखा संघकी ओरसे जो जिम्मेदारी तुमने अपने ऊपर ली है, क्या तुम्हारा इरादा उसे निभानेका है ? उस हैसियतसे किये गये अपने कामोंका लेखा-जोखा तुम्हें अध्यक्षको देना है और उससे भी ज्यादा बड़ी बात यह कि अपनी अन्तरात्माको देना है।
अंग्रेजी पत्र (एस० एन० १२३८१) की फोटो-नकलसे ।