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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ऐसा व्यक्ति राजनीतिक परिषद्में आकर क्या करेगा ? यह प्रश्न उनका चुनाव करनेवाले लोगोंके मनमें तो नहीं उठा लेकिन अमृतलाल ठक्करके मनमें वह उठा । चुनावके लिए उनका नाम आने देनेके लिए उलाहना देते हुए उन्होंने मुझे जो पत्र लिखा है उसका सार यह है ।' (वह पत्र इस समय मेरे सामने नहीं है)।

यह प्रश्न उनके मनमें उठा, यह बात उनकी शुभ मनःस्थितिकी परिचायक है। लेकिन यह तो उन्हें भी ज्ञात है कि राजनीतिक परिषद् इस समय धन्धा ही अन्त्य - जादिकी सेवा करनेका कर रही है। कौन कहेगा कि खादीमें वह सेवा नहीं आती? इतना ही नहीं, अपितु अन्त्यजादिके लिए प्रत्यक्ष रूपसे भी परिषद्ने इस वर्ष कोई कम काम नहीं किया है, और न कम पैसा ही खर्च किया है। इसलिए श्री अमृतलाल ठक्करको जो वस्तु प्रिय है वह इस समय परिषद्का कार्य क्षेत्र ही है। इसके सिवा श्री अमृतलाल ठक्कर तो काठियावाड़में खादी कार्यके जनक रहे हैं। उनके मनमें खादीके प्रति उतना प्रेम अथवा उतनी श्रद्धा इस समय भी है या नहीं सो में अवश्य नहीं जानता। उसका स्पष्टीकरण वह सहज ही परिषद्के आगे कर सकेंगे ।

रही राजनीतिकी बात, सो मेरे विचारसे आज ऐसी परिषद् के लिए रचनात्मक कार्यसे भिन्न कोई दूसरी राजनीति हो ही नहीं सकती। मैंने तो समस्त भारतवर्षके लिए ऐसी ही कल्पना की है। यदि तथाकथित राजनीतिको छोड़कर भारतवर्ष रचनात्मक कार्यमें तन्मय हो जाये और अपना काम ठक्कर बापाकी निष्ठासे करे तो स्वराज्य हस्तामलकवत हो जाये । और अगर यह बात भारतवर्षके लिए ठीक है तो काठियावाड़के लिए तो मैं उसे विशेष रूपसे कहूँगा । इसका अर्थ यह नहीं है कि राजनीतिका कोई भी कार्य काठियावाड़में अथवा काठियावाड़से बाहर होना ही नहीं चाहिए। जिनसे केवल राजनीतिका ही काम हो सकता है, जिन्हें रचनात्मक कार्य व्यर्थ जान पड़ता है, वे राजनीतिमें अवश्य पड़ेंगे। हम उनका दामन पकड़कर उनके पीछे-पीछे चलेंगे। किन्तु यदि हमें उनका काम पसन्द नहीं आया तो हम उन्हें उनकी राह जाने देंगे और जब वे देखेंगे कि हममें से कोई उनका अनुकरण नहीं कर रहा है तब उनके मनमें अपने मार्गके औचित्यपर शंका उत्पन्न होगी और वे वापस लौटेंगे। काठियावाड़ परिषद्‌ने इस सुवर्ण मार्गको ग्रहण किया है। मुझे उम्मीद है कि परिषद् इस मार्गको नहीं छोड़ेगी। मैं ऐसी एक भी घटनाको नहीं जानता कि जिससे परिषद्को ऐसा लगे कि उसे अपना यह मार्ग छोड़ना चाहिए। यदि हम सज्जन बनेंगे, जाग्रत, भयमुक्त और एक बनेंगे तो राजा भी सहज ही सज्जन, जाग्रत, प्रेमालु और जनताका मित्र बन जायेगा । यह ईश्वरीय नियम कि 'आप भला तो जग भला ' लोकोक्ति मात्र नहीं अपितु सत्य है। यह जन-युग है; इस युगमें 'यथा राजा तथा प्रजा' की अपेक्षा 'जैसी प्रजा तैसा राजा' ज्यादा सत्य है। इसीलिए राजनीतिका अर्थ है लोगोंमें ऊपरसे लेकर नीचेतक सबके साथ सम्बन्धकी भावना और एकता । यह एकता ऐसा रचनात्मक कार्य है जिसमें सबके पारस्परिक सम्बन्धकी आवश्यकता

१. यहां नहीं दिया गया है। अपने इस पत्र में ठक्करने लिखा था कि वे तो ढेद, भंगियों, भीलों आदिमें काम करते रहे हैं; ऐसी हालतमें राजनीतिके क्षेत्रसे उनका मेल कैसे बैठेगा।