१४८. पत्र : एक मित्रको '
प्रिय मित्र,
आपका पत्र मुझे अभी-अभी दिया गया है। मैं आपके छात्रावासमें अहिंसाके विषयपर बोलना तो चाहता हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि २१ तारीखको मेरे पास बिलकुल समय नहीं होगा; क्योंकि मैं नागपुरमें केवल कुछ ही घंटे रहूँगा । और इस तारीखके पहले मैं वर्धा नहीं छोड़ सकता ।
अंग्रेजी पत्र (सी० डब्ल्यू० ४५०५) की फोटो-नकलसे ।
सौजन्य : श्रीमती लम्सडेन
१४९. हिमालयके शिखरोंसे
एक मित्र, जो अबतक भारतके मैदानों में रहे हैं और अब कार्यवश सैर-सपाटे- के लिए हिमालयमें गये हुए है, उसकी बर्फीली शृंखलाओंकी प्रशंसा डूब गये हैं।
उन्होंने मुझे निम्न उद्धरण भेजा है:
संसारके कोलाहलसे दूर, अत्यधिक अन्तराल और शीतके कारण भयंकर, फिर भी अकथनीय रूपसे सुन्दर तथा गम्भीर नीरवतामें संसारसे ऊपर मस्तक उठाये खड़े हिमालयके इन शिखरोंको काहेकी उपमा दें ? कह सकते हैं, वह विभूति रमाये हुए ध्यानमें मग्न, मौन और अकेले बैठे हुए किसी महान् योगीकी तरह है। वह स्वयं देवोंके देव महादेव-शिवके समान है।
और अन्तमें उन्होंने होम्स द्वारा दी गई 'नीरवताको श्रद्धांजलि' उद्धृत की है :
सृष्टिकी सराहनाके लिए सच्ची भाषा मौन ही है।
अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १६-१२-१९२६
१. मित्रका नाम ज्ञात नहीं है।