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१४८. पत्र : एक मित्रको '

वर्धा
 
१५ दिसम्बर, १९२६
 

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मुझे अभी-अभी दिया गया है। मैं आपके छात्रावासमें अहिंसाके विषयपर बोलना तो चाहता हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि २१ तारीखको मेरे पास बिलकुल समय नहीं होगा; क्योंकि मैं नागपुरमें केवल कुछ ही घंटे रहूँगा । और इस तारीखके पहले मैं वर्धा नहीं छोड़ सकता ।

हृदयसे आपका,
 
मो० क० गांधी
 

अंग्रेजी पत्र (सी० डब्ल्यू० ४५०५) की फोटो-नकलसे ।

सौजन्य : श्रीमती लम्सडेन

१४९. हिमालयके शिखरोंसे

एक मित्र, जो अबतक भारतके मैदानों में रहे हैं और अब कार्यवश सैर-सपाटे- के लिए हिमालयमें गये हुए है, उसकी बर्फीली शृंखलाओंकी प्रशंसा डूब गये हैं।

उन्होंने मुझे निम्न उद्धरण भेजा है:

संसारके कोलाहलसे दूर, अत्यधिक अन्तराल और शीतके कारण भयंकर, फिर भी अकथनीय रूपसे सुन्दर तथा गम्भीर नीरवतामें संसारसे ऊपर मस्तक उठाये खड़े हिमालयके इन शिखरोंको काहेकी उपमा दें ? कह सकते हैं, वह विभूति रमाये हुए ध्यानमें मग्न, मौन और अकेले बैठे हुए किसी महान् योगीकी तरह है। वह स्वयं देवोंके देव महादेव-शिवके समान है।

और अन्तमें उन्होंने होम्स द्वारा दी गई 'नीरवताको श्रद्धांजलि' उद्धृत की है :

सृष्टिकी सराहनाके लिए सच्ची भाषा मौन ही है।

अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, १६-१२-१९२६


१. मित्रका नाम ज्ञात नहीं है।