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१७०. पारसियोंमें हाथसे सूतकताई

एक पत्र लेखकने मेरे पास बम्बई अहातेके 'गजेटियर' के १८८३ के संस्करण के ७ वें खण्डके पृष्ठ १५५ से यह अंश उद्धृत करके भेजा है:

गामदेवीके पारसी बुनकर विशेष रूपसे प्रसिद्ध थे, और सन् १७८७-८८ में एक यूरोपीय यात्री डाक्टर होव वहाँके पारसियोंसे उनकी इस कलाका ज्ञान प्राप्त करने के विशेष उद्देश्यसे वहाँ गये थे। इस उद्योगको समाप्त हुए ५० बरस- से भी ज्यादा हो गया है। किन्तु पुरोहित वर्गकी पारसी स्त्रियाँ अब भी पारसी स्त्री-पुरुषों द्वारा पहनी जानेवाली पवित्र 'कस्ती' तैयार करनेके लिए काफी सूत कातती हैं। बम्बईमें इसकी बहुत बिक्री होती है और मेहनतके हिसाबसे तीन रुपये या उससे भी ज्यादामें मिलती है। कुछ पारसी स्त्रियाँ दुकानदारोंकी माँगके मुताबिक निवाड़, मोटी घोतियाँ और खादीका कपड़ा तैयार करती हैं। किन्तु ज्यादातर तो पारसियोंने इस बुनाईके धन्धेको, जिसमें उन्हें कभी इतनी कुशलता प्राप्त थी, त्याग ही दिया है।

यदि वे पारसी, जो शराबकी दूकानें चला रहे हैं, इस अनैतिक व्यापारको त्याग दें और उसकी जगह बुनाईके इस उत्थानकारी और उत्पादक धन्धेको, जिसमें वे ५० वर्ष पहले इतने कुशल थे, करने लगें तो यह भारतके लिए और स्वयं उनके लिए एक बहुत बड़ा वरदान सिद्ध हो । हाथके कते सूतकी कस्तीके जिक्रसे मुझे उस दृढ़निश्चयी पारसी बहनकी याद आती है जो मुझे नवसारीमें मिली थी। उसने मुझे बताया कि एक समय नवसारीकी पारसी स्त्रियाँ कस्तीके लिए सूत कातकर अपनी आजीविका कमाती थीं और हाथोंकी कती कस्ती पवित्र मानी जाती थी। किन्तु बादमें वहाँ सुधारकों के रूपमें कुछ ऐसे लोग पहुँच गये जो हाथकते सूतकी जगह मशीनोंका कता सूत काममें लेने लगे और नवसारीकी स्त्रियोंका यह धन्धा समाप्त हो गया ।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, २३-१२-१९२६