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१०. पत्र: वि० ल० फड़केको

कार्तिक सुदी ५, १९८३, १० नवम्बर, १९२६

भाई मामा,

चुप रहनेका इरादा रखकर चुप रहा हूँ, ऐसी बात नहीं है। तुम्हारे पत्रका जो अंश लिखने योग्य था उसके बारेमें लिखा है। लेखमाला शुरू करनेपर उसमें गोधरासे सम्बन्धित अंश तुम्हें भेजनेके बाद ही छापूंगा। रामचन्द्रवाला चरसा लेने में कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए, ऐसा मानता हूँ। अलबत्ता, उसके मिलनेमें कुछ कठिनाइयाँ खड़ी हो गई हैं। तुम्हें मदद देने में कोई कसर तो नहीं रही है।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र ( जी० एन० ३८१६) की फोटो-नकलसे।

११. आदर्शोंका दुरुपयोग

बाल विधवाओंके पुनर्विवाहपर मेरे पास आये हुए एक पत्र में से मैं निम्न- लिखित अंश उद्धृत करता हूँ:

२३ सितम्बर के 'यंग इंडिया' में[१] आगराके 'ब' महोदयके पत्रके उत्तरमें आपने कहा है कि बाल-विधवाओंके माता-पिताओंको चाहिए कि वे उनका पुनर्विवाह कर दें। यह बात उन लोगोंके बारेमें कैसे सम्भव है जो कि कन्यादान करते हैं अर्थात् जो शास्त्रोक्त विधिसे अपनी कन्याओंका विवाह करते हैं? निश्चय ही जिन माता-पिताओंने अपनी पुत्रीपर अपने सारे हक संकल्प-पूर्वक और धार्मिक विधियोंके अनुसार दामादको सौंप दिये हैं, उनके लिए दामाद की मृत्युके पश्चात् अपनी पुत्रीका दूसरे व्यक्तिके साथ विवाह करना असम्भव है। वह स्वयं चाहे तो पुनर्विवाह कर सकती है, लेकिन चूंकि वह अपने माता-पिता द्वारा दामादको दान स्वरूप दे दी गई थी इसलिए संसारमें किसी दूसरेको उसका पुनर्विवाह करनेका हक नहीं है। और इसलिए स्वयं उस बाल-विधवाको भी अपना पुनर्विवाह करनेका कोई हक नहीं है। यदि वह अपने पतिसे उसकी मृत्युके समय स्पष्ट आज्ञा पाये बिना अपना पुनर्विवाह करती है। तो वह अपने परलोकवासी पतिके प्रति विश्वासघात करती है और उसे धोखा देती है। अतएव तर्ककी दृष्टिसे ऐसी विधवाके लिए, जिसका विवाह अधिकांश
  1. देखिए खण्ड ३१, पृ४ ४६२।