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आदशोंका दुरुपयोग
सनातनी हिन्दुओंके यहाँ प्रचलित 'कन्यादान' प्रथाके अनुसार किया गया है, और जिसने अपने पतिकी मृत्युके पूर्व उसकी सम्मति प्राप्त नहीं कर ली है, पुनर्विवाह करना अशक्य है — फिर चाहे वह बालिका हो, युवती हो या वृद्धा। लेकिन कोई सच्चा सनातनी हिन्दू पति ऐसी इजाजत देनेका खयालतक नहीं सहन कर सकता। यदि पत्नी सती हो सकती हो तो वह उसे सती होनेकी अनुमति दे सकता है; यदि न हो सकती हो तब वह हर हालत में यही पसन्द करेगा कि उसकी पत्नी अपना शेष जीवन पतिका ध्यान अथवा कहिए ईश्व—राधना करते हुए बिता दे। ऐसा करनेमें उसका एकमात्र उद्देश्य या धार्मिक भाव यही होगा कि हिन्दू समाजमें रूढ़ विवाह और वैधव्य (जो कि एक-दूसरेके पूरक हैं, न कि एक-दूसरेसे अलग और स्वतन्त्र) के उच्च आदशोंकी रक्षा हो।

मैं इस प्रकारके तर्कको किसी उच्चादर्शका कुत्सित विनियोग मानता हूँ। इसमें शक नहीं कि पत्र लेखकका मन्शा अच्छा है, लेकिन स्त्रियोंकी पवित्रता विषयक अति—चिन्तामें पड़कर वे सीधे-सादे न्यायको ही भूल बैठे हैं। छोटे-छोटे बच्चोंका विवाह करते हुए कन्यादानके क्या मानी हैं? क्या किसी पिताको अपने बच्चोंके ऊपर स्वामित्वका अधिकार प्राप्त है? वह उनका संरक्षक मात्र है, न कि स्वामी। और जब वह अपनी कन्याकी स्वतन्त्रताका विनिमय करनेकी तदबीर करता है तब तो वह संरक्षण करनेका यह अधिकार भी खो देता है। इसके सिवा जो बच्चा उक्त दानको प्राप्त करनेके सर्वथा अयोग्य है उसे वह दान दिया भी कैसे जा सकता है? जहाँ ग्रहण करनेकी शक्तिका अभाव हो, वहाँ दान सम्पन्न ही कैसे हो सकता है? निस्सन्देह कन्यादान एक निगूढ़ धार्मिक प्रथा है और उसका आध्यात्मिक महत्त्व है। ऐसे शब्दोंका बिलकुल अक्षरार्थं लेकर प्रयोग करना भाषा और धर्मका दुरुपयोग करना है। तब तो पुराणोंकी प्रतीकात्मक भाषाका भी इसी प्रकार शाब्दिक अर्थ किया जायेगा और हम यह मानेंगे कि पृथ्वी थालीके मानिन्द चपटी है, उसे सहस्र फनवाले शेष-नागजी साधे हुए हैं और नारायण क्षीरसागरमें उन्हीं शेषनागकी शय्यापर आनन्दसे शयन कर रहे हैं।

जिन माता-पिताओंने अपनी नन्हीं बच्चीको मूढ़तावश किसी बूढ़े या किसी १६, १७ वर्षके बालकसे ब्याह दिया है, कमसे कम उन माता-पिताओंका कर्त्तव्य यह है कि वे अपनी इस बच्चीके विधवा होनेपर उसका विवाह करके पापसे मुक्त हों। जैसा कि मैं किसी पिछले अंकमें अपनी टिप्पणीमें कह चुका हूँ[१], ऐसी शादियोंको तो शुरूसे ही अमान्य घोषित कर दिया जाना चाहिए।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ११-११-१९२६
  1. देखिए खण्ड ३१, पृष्ठ ३९२-९६।