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१२. करघा बनाम चरखा

लगता है, यह बात अब सामान्यतः स्वीकार कर ली गई है कि चूंकि हिन्दुस्तानकी आबादीके ७१ प्रतिशत लोगोंकी गुजर-बसर खेतीपर होती है, और उनके सालमें कमसे कम चार महीने बेकारीमें बीतते हैं, इसलिए देशको किसी सहायक धन्धेकी जरूरत है। अगर उस धन्धेको सार्वत्रिक होना है तो वह सिर्फ हाथ कताईका धन्धा ही हो सकता है। मगर कुछ लोग कहते हैं कि हाथ बुनाईका धन्धा हाथ कताईसे अच्छा है क्योंकि उसमें आमदनी अधिक होती है।

आइए, अब हम कुछ तफसीलमें जाकर इस दलीलकी जाँच करें। यह कहा जाता है कि हाथ-बुनाईसे आठ आने रोजकी आमदनी हो जाती है; मगर चरखा चलाकर तो आदमी एक ही आना पैदा कर पाता है। अगर कोई सिर्फ दो घंटे काम करे तो बुनाईके जरिये उसे दो आने मिलेंगे और उतने ही समय चरखा चलानेसे केवल एक पैसा मिलेगा। यह भी कहा जाता है कि १ पैसेकी आमदनी कुछ ऐसी चीज नहीं है कि कोई उसकी ओर आकृष्ट हो। अगर लोगोंको बुननेका काम दिया जा सकता हो तो उस हालतमें उसके बजाय उन्हें चरखा चलानेको कहना गलत होगा। करघेके हिमायती यह भी कहते हैं कि हिन्दुस्तानकी जरूरतके लायक मिलका सूत मिलनेमें कोई कठिनाई नहीं होगी। अन्तमें वे कहते हैं कि करघेको, जिसे अब तक मिलोंसे प्रतियोगिता करनेमें सफलता मिलती रही है, पूरे उत्साह और निश्चयके साथ बढ़ावा दिया जाना चाहिए। करघेके कुछ हिमायती तो यहाँतक कहते हैं कि हाथ कताई यानी चरखा आन्दोलन एक शरारत भरी बात भी है क्योंकि यह हाथ बुनाईके सम्माननीय उद्योगकी ओरसे लोगोंका ध्यान हटाकर उन्हें एक ऐसे धन्धेका समर्थन करनेकी प्रेरणा देता है जो अपनी सहज सामर्थ्यहीनताके कारण मर चुका है।

आइए, अब हम ऊपरसे ठीक प्रतीत होनेवाले इस तर्ककी जाँच करें।

पहली बात तो यह है कि सहायक धन्धेके रूपमें हाथ-बुनाईकी योजना व्यावहारिक नहीं है; क्योंकि इसे सीखना सरल नहीं है, यह किसी भी जमाने में सम्पूर्ण हिन्दुस्तान में प्रचलित नहीं थी; इसके लिए व्यक्तिको कई सहयोगियोंकी जरूरत पड़ती है, और इसे अवकाशमें चाहे जब नहीं किया जा सकता। यह तो स्वतन्त्र धन्धेके रूपमें ही रहा है, और साधारणतः इसी तरह रह सकता है। ज्यादातर तो मोचीगिरी या लोहारीकी तरह इसे अपना पूरा समय देकर ही किया जा सकता है।

इसके अलावा जिस अर्थ में हाथ कताई हिन्दुस्तानमें घर-घर फैल सकती है, उस अर्थमें तो यह कभी नहीं फैल सकती। हिन्दुस्तानको सालाना ४६,६१० लाख गज कपड़ेकी जरूरत है। एक जुलाहा औसतन एक घंटे में पौन गज मोटी खादी बुनता है। इसलिए यदि हम विलायती और देशी मिलोंके कपड़ेका बिलकुल ही उपयोग न करें तो हमें इसके लिए दो घंटे रोजाना काम करनेवाले अधिकसे-अधिक ९० लाख बुननेवालोंकी जरूरत होगी। अगर यह कहा जाये कि इससे केवल इतने जुलाहोंको