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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस्लामका धर्म-चिह्न नहीं है मगर इस्लामकी पैदाइश ऐसी स्थितिमें हुई जहाँ तलवारकी ही तूती बोलती थी और अब भी बोलती है । ईसाके सन्देशका भी कुछ असर नहीं पड़ा क्योंकि उसे ग्रहण करने लायक वातावरण ही उपस्थित नहीं हुआ। पैगम्बरके उपदेशोंके साथ भी यही बात है। मुसलमानोंको बात-बातपर तलवारें निकाल लेनेकी बान पड़ गई है। इस्लामके अर्थ हैं शान्ति; अगर उसे अपने अर्थ के अनुसार बनना है तो तलवार म्यानमें रखनी होगी। यह खतरा तो है कि मुसलमान लोग गुप्त रूपसे इस कृत्यका समर्थन ही करें। यदि ऐसा हुआ तो यह उनके लिए और संसारके लिए दुर्भाग्यकी बात होगी; क्योंकि आखिरकार हमारी समस्या एक विश्व-समस्या है। ईश्वरपर विश्वास और तलवारपर विश्वास, इन दोनों चीजोंमें कोई संगति नहीं है। मुसलमानोंको सामूहिक रूपसे इस हत्याकी निन्दा करनी चाहिए।

मैं अब्दुल रशीदकी ओरसे भी कुछ कहना चाहता हूँ। मैं उसे नहीं जानता। मुझे इससे मतलब नहीं कि उसने हत्या क्यों की । दोष हमारा है। अखबारवाले चलते- फिरते रोगाणु बन गये हैं। वे झूठ और निन्दाकी छूत फैलाते हैं। अपनी भाषाके गन्देसे- गन्दे शब्दोंका भंडार वे खाली कर देते हैं और पाठकोंके संशय रहित और प्रायः ग्रहणशील मनोंमें विकारके बीज बो देते हैं। अपनी वक्तृत्वाशक्तिके मदसे मत्त नेताओंने अपनी कलम और अपनी जबानपर लगाम लगाना सीखा ही नहीं है । गुप्त और छल-कपटपूर्ण प्रचार अपना भयंकर काला काम बेरोक-टोक करता रहता है। इसलिए यह तो हम शिक्षित और अर्द्ध-शिक्षित लोग ही हैं जो अब्दुल रशीदकी मनोवृत्तिके लिए दोषी हैं।

दो विरोधी दलोंमें किसका कितना दोष है, इसका निश्चय करना बेकार है। जहाँ दोनों ही दोषी हों, वहाँ धर्मराजकी तुलासे दोषोंका, न्याय-अन्यायका ठीक-ठीक बँट- वारा कौन कर सकता है ? आत्मरक्षाके लिए झूठ बोलना या अतिशयोक्ति करना उचित नहीं है ।

वैसे ऐसी आशा रखना तो बहुत बड़ी बात होगी, किन्तु स्वामीजी बहुत बड़े थे और इससे यह आशा बँधती है कि उनका खून हमारा पाप धो देगा, और हमारे दिलोंके मैलको साफ करके, मनुष्य जातिके दो बड़े समुदायोंको एक कर देगा।

स्वामीजीको जैसा मैं जानता था, उसकी चर्चा मैं 'यंग इंडिया' के अगले अंकमें करूँगा ।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, ३०-१२-१९२६