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१९०. अस्पृश्यताकी तुलना

अपने वर्धा-मुकामके समय मुझे अछूतोंके मुहल्ले देखनेका अवसर आया था । उनमें रहनेवाले लोग सुखी तो मालूम पड़ते थे किन्तु इतनी जागृति हो जानेपर भी अस्पृश्यता निवारणके आन्दोलनकी धीमी चालसे वे असन्तुष्ट हैं। उन्हें इस बातका रंज है कि अब भी साधारणतः मंदिरों, कुओं या स्कूलोंका उन्हें व्यवहार नहीं करने दिया जाता। वे यह समझ ही नहीं सकते, समझेंगे भी नहीं कि प्रगति 'लँगड़ी' होती है और इसलिए उसकी गति बहुत धीमी होती है। वे इसकी कोई वजह नहीं देख सकते, और कोई वजह है भी नहीं, कि जो कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं, उन्हें झेलना ही पड़े।

इस दिलचस्प दौरेके दो दिनों बाद मुझे मालूम हुआ कि जमनालालजीकी कोशिशोंकी बदौलत वर्धाके अछूत और जगहोंकी अपेक्षा अधिक सुखी हैं। वहाँके कई सार्वजनिक कुओंसे वे पानी ले सकते हैं, म्युनिसिपल स्कूलमें वे बेरोक-टोकके भर्ती किये जाते हैं, अनाथालयमें सवर्ण और अछूत अनाथोंमें कोई अन्तर नहीं किया जाता, पानीके सार्वजनिक नलोंसे उन्हें पानी लेने दिया जाता है, और उनके प्रति अन्यायकी दीवार तोड़नेकी निरन्तर कोशिश की जा रही है ।

जिस समय अछूत भाई मुझे अपने विचार बता रहे थे उस समय मुझे दक्षिण आफ्रिकाकी अस्पृश्यताकी घटनाएँ बरबस याद हो आईं। यह वहाँ गोलमेज सम्मेलनमें जो विमर्श इस समय चल रहा है, उसके खयालसे स्वाभाविक ही था । भारतमें हम कुछ लोगोंको अस्पृश्य मानते हैं और इसी प्रकार दक्षिण आफ्रिकामें दूसरे लोग हमें । यहाँ तो 'जालिमके ऊपर जुल्म' वाली बात लागू है। जैसा हम हिन्दुस्तानमें करते हैं, उसका बदला हमें दक्षिण आफ्रिकामें सूद समेत मिलता है।

वहां सम्मेलन इस समस्याका हल खोजनेमें लगा है। सुफलकी प्राप्तिके लिए एन्ड्रयूज भगीरथ प्रयत्न कर रहे हैं। उन्होंने दक्षिण आफ्रिकाकी पवित्रतम शक्तियोंको के पक्ष में संगठित किया है।

तथापि आइए, हम दोनों प्रकारकी अस्पृश्यताओंके अन्तरपर विचार करें । हिन्दुस्तानकी अस्पृश्यता घड़ियाँ गिन रही है। उसकी जड़पर कुल्हाड़ा लग चुका है। शिक्षित समाज उसके विरुद्ध है। कोई भी प्रभावशाली पुरुष उसका समर्थन नहीं करता । अछूतोंको बाँध रखनेवाली जंजीरें दिनोंदिन टूटती जा रही हैं। कानून भी उसका समर्थन नहीं करता। वह जो-कुछ बची है, सो रस्मोरिवाजके कारण। रिवाज जल्दी नहीं बद- लते। कानूनका सहारा न रहनेपर भी वे लम्बे अरसेतक साँस खींचते रहते हैं, खास कर अगर वे रूढ़ हो चुके हों। अव हिन्दुस्तानकी अस्पृश्यता समय पाकर अपने आप समाप्त हो जायेगी ।

दूसरी ओर, दक्षिण आफ्रिकावाली अस्पृश्यता दिनपर-दिन जड़ पकड़ती जाती है। इसे दिन-ब-दिन कानूनकी अधिकाधिक सहायता मिलती जाती है । सन् १९१४ के अन्तिम समझौते के बावजूद, १९१५ से अबतक दक्षिण आफ्रिकी संघ संसदकी हर बैठकमें