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करघा बनाम चरखा

ही नहीं, जुलाहोंके उतने ही परिवारोंको काम मिलेगा तो फिर दो घंटेकी दो आनेकी आमदनी कई आदमियोंमें बँट जायेगी और इस प्रकार एक आदमीकी रोजाना आम- दनीमें काफी कमी हो जायेगी।

अब हम जरा चरखेकी सम्भावनाओंपर भी विचार करें। हम यह जानते हैं कि एक समय कताई हिन्दुस्तानके घर-घरमें होनेवाला सहायक धन्धा था। करोड़ों लोगोंको अभीतक कताईका हुनर भूला नहीं है, और अब भी लाखों घरोंमें चरखा है। इसलिए हाथ कताईका चाहे जितने बड़े पैमानेपर, चाहे जितना प्रसार फौरन किया जा सकता है। और यह भी देखा गया है कि १० कातनेवाले १ जुलाहेके काम लायक सूत दे सकते हैं; इसलिए यदि ९० लाख जुलाहे हों तो ९ करोड़ लोग कातकर अपनी आमदनीमें वृद्धि कर सकेंगे। उनके लिए यह अतिरिक्त आमदनी कोई मामूली वृद्धि न होगी; यह वृद्धि उनकी आयकी कमसे कम २५ प्रतिशत बैठेगी। मैंने फी आदमीकी औसत सालाना आमदनी ४० रुपये मानी है; जब कि औसत आमदनी इससे काफी कम है। बुनाईके कामको चाहे जब बन्द नहीं किया जा सकता किन्तु कताईका काम किसी भी समय बन्द किया जा सकता है, और इसलिए जब जितनी फुरसत मिले, हम उतने समयमें ही कुछ-न-कुछ काम कर ले सकते हैं। चरखा चलाना जल्दी और आसानीसे सीखा जा सकता है और कातनेवाला शुरूसे ही कुछ-न-कुछ सूत तो निकालने ही लग जाता है।

इसके अतिरिक्त यह भरोसा करना भी गलत है कि मिलसे सूत बराबर मिलता रहेगा। हाथ-बुनाई और मिलकी बुनाई एक-दूसरेके सहायक धन्धे नहीं हैं। वे दोनों परस्पर विरोधी धन्धे हैं। अन्य सभी यन्त्र उद्योगोंके समान, कपड़ेकी मिलोंकी प्रवृत्ति भी हाथके कामको समाप्त करनेकी ही है। इसलिए यदि हाथ-बुनाई बड़े पैमानेपर एक सहायक धन्धेका रूप ले भी सके, तो उसे पूरी तरह मिलोंपर ही निर्भर करना पड़ेगा और मिलें सूतके दामके रूपमें जुलाहेसे उसकी दमड़ी दमड़ी खींच लेगी और इस धन्धेको जल्दीसे-जल्दी खत्म कर डालेंगी।

दूसरी ओर हाथ-बुनाई और हाथ कताई परस्पर सहायक धन्धे हैं। यह बात मौजूदा कताई केन्द्रोंके अनुभवसे सहज ही साबित की जा सकती है। यह लेख लिखते समय भी मेरे पास साथी कार्यकर्त्ताओं के पत्र पड़े हुए हैं जो यह लिखते हैं कि सूतकी कमीसे उन्हें जुलाहोंको खाली हाथ लौटा देना पड़ रहा है।

यह बात कम लोग जानते हैं कि मिलके सूतसे कपड़ा बुननेवाले जुलाहोंकी बहुत बड़ी संख्या साहूकारोंके चंगुलमें फँसी हुई है और जबतक वे मिलके सूतके भरोसे रहेंगे उनकी ऐसी ही हालत बनी रहेगी। ग्रामीण अर्थ-व्यवस्थाका तकाजा है कि जुलाहोंको सूत मिलोंसे न लेकर अपने साथी किसानसे ही लेना चाहिए।

इसके सिवा जहाँतक पता चलाया जा सका है, आज २० लाख जुलाहे काम कर रहे हैं। एक नये करघेको बैठानेका अर्थ १७ रुपयेकी नई पूँजी लगाना होता है, जब कि एक नये चरखेके लिए साढ़े तीन रुपयेसे अधिककी जरूरत नहीं होती। खादी प्रतिष्ठानके चरखेका दाम तो दो ही रुपये है। दूसरा कुछ प्रबन्ध न हो सके तो तकली तो बिना खर्चके घरपर ही तैयार कर ली जा सकती है।