पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस प्रकार चरखा ही वह एकमात्र आधार मालूम पड़ता है, जिसपर सन्तोषजनक रूपसे ग्रामीण जीवनकी संरचना हो सकती है। यही वह मध्यबिन्दु है जिसके गिर्द गाँवका पुनर्गठन सम्भव है।

मगर यह कहा जाता है कि गरीब देहातियोंके लिए भी फी दो घंटे एक पैसेकी आमदनी आर्थिक दृष्टिसे आकर्षक नहीं होगी। पहली बात तो यह है कि चरखा उन लोगोंके लिए नहीं है, और उन्हें चरखा चलानेको कोई कहता भी नहीं, जिनके पास ज्यादा आमदनी देनेवाला कोई रोजगार हो। आज हजारों औरतें रोजाना या हफ्ते में एक बार अपना सूत जमा करके उसके बदले दो पैसे लेने और कच्ची कपास लेनेके लिए दो-तीन मील चलकर आती हैं। आखिर यह क्योंकर हो रहा है? उन्हें अगर कोई हाथ करघेपर बुनाई करने को कहे तो वे उसे कभी न करेंगी। इसके लिए उन्हें न तो समय मिल पायेगा, और न वे इसमें कुशल ही होंगी। शहरके रहनेवालोंको आम जनताकी घोर गरीबीका कोई अनुमान ही नहीं है। उनके सन्दर्भमें हमारा मशीन युगकी बात न करना ही अच्छा होगा। मैन्चेस्टरकी मशीनोंने उनकी सूखी रोटीके साथकी दाल छीन ली है; चरखा ही उनकी दाल था। चरखा तो छिन गया लेकिन बदले में वैसी ही या उससे बेहतर कोई चीज उन्हें नहीं मिली। अतएव इन लोगोंकी आशाका एकमात्र आधार चरखा ही है।

यहाँ मैं कृषिकी उन्नति सम्बन्धी अधिक साहसिक किन्तु काल्पनिक योजनाओंकी मीमांसा नहीं करूँगा। मुझे इसमें सन्देह नहीं कि उनकी काफी गुंजाइश है। मगर उसके लिए तो समय और शिक्षाकी अपेक्षा है। हमारी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने वाली गरीबीकी तो तुरन्त ही कोई दवा होनी चाहिए। और यह सिर्फ चरखेसे ही सम्भव है। वैसी उन्नतियोंकी सम्भावनामें चरखा कोई दखल नहीं देता, न वह उनकी उपेक्षा ही करता है। चरखा तो मानो उनकी भूमिका है। जहाँ-जहाँ चरखा गया है, गाँववालोंके जीवनपर उसका एकाधिक ढँगसे प्रभाव पड़ा है और शहरी लोगोंको इसके माध्यम से देहातियों और देहातोंके साथ जीवन्त सम्पर्क रखनेका मौका मिलता है।

आलोचकगण पूछते हैं "आप चरखा चलानेके जो गुण बताते हैं अगर वे सब उसमें हैं, तो फिर क्या बात है कि वह सब जगह नहीं फैला? यह सवाल सर्वथा उचित है। इसका जवाब सीधा-सादा है। चरखेका मन्त्र हमें जिन लोगोंतक पहुँचाना है वे ऐसे लोग हैं जिनमें कोई आशा नहीं बची और काम करनेका जिनका माद्दा खत्म हो चुका है और जिन्हें अगर उनके हालपर छोड़ दिया जाये तो सम्भव है। वे भूखों मरते चले जायेंगे, काम करके जीवित रहनेकी कोशिश नहीं करेंगे। अरसे तक उपेक्षित रहने के कारण आलस्य इनका स्वभाव ही बन गया है। इस आलस्यको दूर करनेका यही एक उपाय है कि उनके सामने ऐसे चरित्रवान् परिश्रमी पुरुषोंके उदाहरण आयें जो स्वयं चरखा चलाते हों और फिर उनसे उनका जीवन सम्पर्क स्थापित हो तथा उन्हें धीरे-धीरे रास्ता दिखाया जाये। दूसरी बड़ी कठिनाई है, खादीके लिए बने बनाये बाजारका अभाव। मैं मानता हूँ कि फिलहाल खादी, मिलके कपड़ोंसे होड़ नहीं कर सकती। मैं किसी ऐसी प्रतियोगितामें पड़ना भी नहीं चाहता। वह हानिकारक होगी। जिसके पास पूंजी है, वह बाजारपर कब्जा करने के लिए अपना