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प्रार्थना-प्रवचन

जेलमें जब मैंने 'महाभारत' में द्रौपदी द्वारा श्रीकृष्णसे की गई यह प्रार्थना पढ़ी तब मैं बहुत रोया।

मेरे विचारानुसार द्रौपदीकी इस प्रार्थनाकी शक्ति अपूर्व है। उत्तर भारतमें असंख्य लोग इस प्रार्थनाका गान करते हैं ।

शब्दोंकी शक्ति भी उनके पीछे निहित तपश्चर्याक अनुपातसे बढ़ती अथवा कम होती है । ॐ शब्दमें क्या है ? मात्र अ, उ और म तीन अक्षरोंको मिलाकर एक शब्द बना लिया है; लेकिन इसकी कीमत हम जो तपश्चर्या करते हैं, उसमें निहित है। जैसे-जैसे तपश्चर्या में वृद्धि होती है वैसे-वैसे इसके मूल्यमें भी वृद्धि होती है। यही बात द्रौपदीके सम्बन्धमें भी लागू होती है। वह भी व्यासजीका एक कल्पित पात्र है, फिर ऐसी स्त्री हुई हो अथवा न हुई हो । [ इस प्रार्थनाकी शक्तिका कारण ] एक तो व्यासजीकी तपश्चर्या है और दूसरे व्यासजीने द्रौपदीसे जो प्रार्थना करवाई वह बादमें करोड़ों लोगोंने की, इससे भी प्रार्थनाका मूल्य बढ़ा ।

गो-विन्द अर्थात् इन्द्रियोंका स्वामी । गोपी अर्थात् हजारों इन्द्रियाँ । गोपीजन- प्रिय अर्थात् बड़े समुदायका प्रिय अथवा यों कहिए कि निर्बल-मात्रका प्रिय । द्रौपदी कौरवोंसे घिरी हुई थी । कौरव अर्थात् हमारी दुष्ट वासनाएँ । वह कहती है, 'हे केशव, तू मूझे क्यों नहीं जानता ?' यह आर्तनाद है। दुखियोंकी आवाज है। क्या हम सबके मनमें दुष्ट वासनाएँ नहीं होतीं? किसी भी समय विकार उत्पन्न नहीं होता ? द्रौपदी कहती है कि कौरवोंने मेरे आसपास घेरा डाल लिया है। यहाँ कौरवोंका अर्थ दुष्ट पुरुष भी हो सकता है। लेकिन हम दुष्ट पुरुषोंकी अपेक्षा दुष्ट वासनाओंसे अधिक घिरे हुए हैं। इसलिए कौरवोंका अर्थ दुष्ट वासना करना ही अधिक उचित प्रतीत होता है।

द्रौपदी ईश्वरकी दासी है और दासीको ईश्वरसे भी लड़नेका अधिकार है । इसलिए वह कहती है, 'हे नाथ, हे प्रभु, हे रमानाथ अर्थात् हे लक्ष्मीपति अर्थात् समस्त जगतके स्वामी, मोक्ष देनेवाले, आत्मदर्शन करानेवाले, ब्रजनाथ अर्थात् जगतके नाथ; आर्तिनाशन् अर्थात् दुःखोंका नाश करनेवाले, मैं कौरव रूपी समुद्र में डूबी हुई हूँ. दुष्ट वासनाओंसे भरी हुई हूँ, तुम मेरा उद्धार करो ।

द्रौपदी ने 'कृष्ण, कृष्ण', ऐसा दो बार कहा। मनुष्यको जब बहुत आनन्द होता है अथवा बहुत दुःख होता है उस समय वह दो बार बोलता है। 'तुम मुझ शरणागत दुखियाकी रक्षा करो, में दुष्ट वासनाओंसे घिरी हुई हूँ और शिथिल हो गई हूँ, मेरा गात शिथिल हो गया है। तुम मेरा उद्धार करो ।'

  1. Redirect [[]]बम्बईमें एक जानकीबाई नामक महिला है । सन् १९१५ में जब में रेवाशंकर

भाईके यहाँ था तब वह मुझे वहाँ मिलने आई। उसने मुझसे कहा कि मैं ऐसा करती हूँ, वैसा करती हूँ । उस समय तो मुझे उसपर विश्वास नहीं हुआ । बादमें मैं द्वारिका गया; वहाँ भी वह पहुँची, इसलिए उसके सम्बन्धमें मैंने विशेष रूपसे जाँच की। तब मुझे पता चला कि वह दुष्टसे-दुष्ट लोगोंके बीचमें भी निर्भय घूमती