पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/५१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४८४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। उसके मनमें यह धारणा बैठ गई है कि मुझे दुष्टसे-दुष्ट लोगोंमें रहते हुए अपने शीलकी रक्षा करनी है और होता भी यह है कि कोई उसे खीझमें भी "तू' कहकर सम्बोधित नहीं करता । वह सिंहनीकी भाँति दुष्ट लोगोंके बीचमें घूमती है।

हम द्रौपदीके समान दुर्बल हैं। कारण, हममें अनेक प्रकारकी वासनाएँ हैं, और अनेक प्रकारकी मलिनताएँ हैं। हम दुर्बल हैं इसका प्रमाण यह है कि हम सब सर्पादि से डरते हैं, मैं आश्रममें सबसे बड़ा माना जाता हूँ, किन्तु मैं भी डरता हूँ। इसलिए मैं द्रौपदीसे भी अधिक दुर्बल हूँ ।

द्वारिका अर्थात् सारा जगत अथवा हम स्वयं -- काठियावाड़में पोरबन्दरके समीप स्थित छोटा और गन्दा नगर नहीं ।

स्त्रियोंने ऐसा क्या किया है कि इनके बारेमें तुलसीदास जैसे व्यक्तिने भी उनके लिए अपमानसूचक विशेषणोंका प्रयोग किया है ? इसे आप तुलसीदासका दोष कहें अथवा परिस्थितिका, लेकिन यह दोष तो है ही।

इस पुराने विधि-विधानकी रचना ऋषि-मुनियों अर्थात् पुरुषोंने ही की है। इसलिए इसमें स्त्रियोंके अनुभवका अभाव है। हमें वस्तुतः स्त्री-पुरुषमें से किसीको भी ऊँचा अथवा नीचा नहीं समझना चाहिए। दोनोंके स्थान और कार्य अलग-अलग हैं। दोनोंकी मर्यादाएँ ईश्वरने निश्चित की हैं।

आत्माका उद्धार आत्मा ही कर सकती है। आत्माका बन्धु आत्मा ही है। स्त्रियोंका उद्धार स्त्रियाँ ही कर सकती हैं। इसके लिए तपश्चर्याकी जरूरत है। यह बात सच है कि स्त्रियोंमें पुरुषोंकी अपेक्षा तपश्चर्याकी शक्ति अधिक होती है। लेकिन यह तपश्चर्या विवेकपूर्वक की जानी चाहिए। अभी तो वे मजदूरोंके समान जबरदस्ती काम करती हैं ।

कोई भी दूसरा व्यक्ति स्त्रियोंकी रक्षा नहीं कर सकता, ऐसा कह सकते हैं। वे अपनी रक्षा आप ही कर सकती हैं। वे स्वावलम्बी बन सकती है अथवा नहीं, इस प्रश्नके उत्तरमें मेरे अन्तरसे यह ध्वनि निकलती है कि हां, वे स्वावलम्बी बन सकती हैं। यदि वे सत्याग्रह सीख लें तो वे पूर्णरूपसे स्वावलम्बी और स्वतन्त्र हो सकती हैं, फिर उन्हें किसीपर निर्भर रहने की जरूरत न रहे । इसका अर्थ यह नहीं है कि वे किसीसे किसी किस्मकी सहायता नहीं लें; जरूरत होनेपर वे सहायता अवश्य लेकिन यदि संसार उनकी सहायता न करे तो उन्हें ऐसा नहीं लगना चाहिए कि वे निराधार हैं। यदि हम उपलब्ध पदार्थोंका उपभोग करते हुए भी अपने मनको उनसे अलग रखें तो हम स्वावलम्बी ही रहते हैं, फिर भले ही हम समस्त जगतका आश्रय लें तो भी पराधीन नहीं बनते। यदि कोई आश्रय नहीं भी देता तो भी हमें लगता है कि आश्रय नहीं मिला तो कोई बात नहीं । उस समय हम क्रोध नहीं