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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यदि हम समदर्शी होना चाहते हैं तो हमें ऐसा उपाय करना चाहिए कि जो समस्त जगतको मिले वही हमें भी मिले, यदि समस्त जगतको दूध मिले तो हमें भी मिले। ईश्वरसे हमारी प्रार्थना यह होनी चाहिए कि यदि तू मुझे दूध देना चाहता है तो सारे जगतको दूध दे। लेकिन ऐसी प्रार्थना कौन कर सकता है ? वही जिसमें इतनी करुणा हो, जो दूसरोंके लिए श्रम कर सकता हो । यदि हम इस नियमका पालन नहीं कर सकते तो हमें कमसे-कम इसे समझना तो अवश्य चाहिए। हमें अभी तो ईश्वरसे इतना ही माँगना चाहिए कि हम इतने ज्यादा गिरे हुए हैं कि वह हमें निभा ले । हम भले ही आगे न बढ़ें, लेकिन वह हमें इतनी शक्ति दे कि हमारे पास जो परिग्रह है, उसे हम कम कर सकें। यदि हम अपने पापोंका प्रायश्चित्त करें तो उनमें वृद्धि नहीं होगी। हमें कोई भी वस्तु अपनी समझकर नहीं रखनी चाहिए और यथाशक्ति परिग्रहका त्याग करनेका प्रयत्न करना चाहिए।

सत्यका, अहिंसाका पालन करनेके लिए यदि समस्त जगतकी मददकी जरूरत हो तब तो मनुष्य पराधीन बन जाये। लेकिन ईश्वरने ऐसा सुन्दर नियम बनाया है कि समस्त जगत विमुक्त हो जाये तो भी मनुष्य सत्यका, अहिंसाका पालन कर सकता है। यदि हम झगड़ा न करना चाहते हों तो हमारा विरोधी झगड़ा कर ही नहीं सकता । वह हारकर शान्त हो जायेगा । क्रोध करनेसे क्रोध बढ़ता है। यह अग्निमें घी डालनेके समान होता है।

जिस मनुष्यके मनमें कभी कोई प्रश्न ही नहीं उठता, वह उन्नति कैसे कर सकता है ?

.' बहनने आत्मघात कर लिया है। उससे हमें यह सीखना है कि मनुष्यको मन-ही-मन दुख अथवा चिन्तासे घुलना नहीं चाहिए। मन-ही-मन चिन्ता नहीं करनी चाहिए। जिसकी ओरसे दुखका अनुभव किया हो हमें उससे तुरन्त कह देना चाहिए, तभी वह दुःख हमारे मनमें नहीं रहेगा। हम मन-ही-मन जो जलते-कुढ़ते रहते हैं वह भी एक प्रकारका आत्मघात ही है ।

आत्म-निन्दा एक सीमातक एक अच्छी चीज है। अपने विषयमें अपने मनमें असन्तोष रहना एक तरहसे अच्छा है; लेकिन यह असन्तोष हदसे ज्यादा नहीं होना चाहिए। अमुक सीमातक असन्तोषके होनेसे मनुष्य उन्नति करता है, लेकिन यदि हम बालकी खाल निकालते रहें और हमेशा ऐसा कहते रहें कि मुझे यह चीज नहीं आती, वह चीज नहीं आती तो वह सचमुच ही नहीं आती और हम मूर्ख बनते हैं। हमें प्रसन्न रहना चाहिए और इसके साथ ही एक प्रकारका असन्तोष भी रखना चाहिए, तभी हम उन्नति कर सकते हैं ।

१. साधन-सूत्रमें नाम छोड़ दिया गया है।