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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्वाभाविक रूपसे अपने गले पड़नेवाले कामको जो व्यक्ति करता है वह उससे अलिप्त रह सकता है, ऐसे कामके सम्बन्धमें उसे मोह नहीं होता ।

सच्चा ज्ञान, सच्ची शिक्षा हमारी अपनी कर्त्तव्यपरायणतामें निहित है।

यदि हम अस्पतालमें जाकर देखें कि वहाँ कितनी तरहके व्यक्ति आते हैं तो हमें घिन आये। डाक्टर दवा करता है परन्तु उसके साथ रोगीको नीरोग रहना सिखाना भी उसका काम है। लेकिन यह काम शायद ही कोई डाक्टर करता है । अधिकांश डाक्टर तो शरीरका ज्यादा लाड़-प्यार करनेमें सहायक बन जाते हैं। ऐसा करके वे मनुष्यके नैतिक चरित्र और उसकी आत्माको नुकसान पहुँचाते हैं। और फिर शरीरकी ज्यादा सार-सम्भाल करनेसे वे सच्चे अर्थोंमें शरीरकी भी रक्षा नहीं कर सकते ।

जीवित प्राणियोंको मारकर दवाएँ तैयार करना या शरीरको सीना, दो-चार टाँके लगाना सीखना, यह क्या मनुष्यका काम है ? ऐसा तो राक्षस करते हैं।

पुरुष अथवा स्त्री, दोनोंको विकार तो होते ही हैं। विकार उत्पन्न हुआ कि उनका मन जहाँ-तहाँ घूमता रहता है, भटकता रहता है । एक वस्तु हमें समझ लेनी चाहिए और वह यह कि हमारा जन्म भोगोंका उपभोग करने अथवा करानेके लिए नहीं अपितु आत्मदर्शनके लिए हुआ है।

शिव-पार्वतीका विवाह आदर्श विवाह है। पार्वतीके जैसा सच्चा विवाह जिसे करना हो उसे तो शिवजी-जैसे निर्विकारी वरका ही चिन्तन करना चाहिए। ऐसी रेखा केवल पार्वतीके ही हाथमें थी, सो नहीं । प्रत्येक स्त्रीके हाथमें यह रेखा होती है।

पतिके चुनावमें उसने कैसे कपड़े पहने हैं, कैसी पगड़ी बाँधी है, इसका विचार नहीं करना है अपितु यह देखना है कि उसके गुण कैसे हैं, उसके पास विद्या कितनी है। एक बार विवाह करनेका विचार किया तो अच्छे चरित्रवालेके साथ, जिससे मनका मेल हो सकता हो उसके साथ विवाह करना चाहिए। ऐसा चारित्र्यवान युवक मिले तो ठीक, नहीं तो कुँआरी रहनेका संकल्प करना चाहिए। जो भी मिल जाये उसीके साथ विवाह करनेका विचार नहीं करना चाहिए। पार्वतीने तो संकल्प किया था कि शिवजी-जैसा निविकारी पुरुष मिलेगा तो ही विवाह करूंगी अन्यथा कुँआरी रहूँगी । प्रत्येक कन्याको पार्वतीका आदर्श रखना चाहिए।

किसीके कन्धेपर न बैठना भी एक प्रकारकी सेवा है। किसीसे कोई सेवा न लेना, काम न करवानेकी वृत्ति रखना, यह भी एक प्रकारकी सेवा है।