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प्रार्थना-प्रवचन

यह जगत तो ऐसा है कि इसके एक टाँका लगाओ तो तेरह टूट जाते हैं, तो फिर हम इसमें कहाँ-कहाँ सुधार करें? सच्चा सुधार तो यही है कि हम अपने अन्तरमें निहित आत्मारूपी सत्यको पहचानें ।

आप भला तो जग भला । अहिंसाके सान्निध्यमें वैरका त्याग होता है, ऐसा भगवान पतंजलिने लिखा है। यदि हम स्वयं गुलाम हैं तो हमें सारी दुनिया गुलाम नजर आती है। तात्पर्य यह है कि निर्दोष व्यक्तिको कौन छलना चाहेगा ? उसके साथ कोई कपट करेगा तो अपना ही नुकसान करेगा। यदि हम प्रतिकार न करें अर्थात् दुष्ट व्यक्तिका विरोध न करें तो उसकी दुष्टता उसे ही मार गिराती है। उसे ठोकर लगती है और वह सीधा हो जाता है।

यदि हम आश्रममें अपना स्वराज्य सिद्ध कर लें तो समस्त हिन्दुस्तानको स्वराज्य मिल जाये । अर्थात् सब बेंतके समान सीधे हो जायें। कोई किसीपर सन्देह न करे; यदि परस्पर एक दूसरेके प्रति अविश्वास न हो तो स्वराज्य हमारी हथेलीमें है ।

स्वराज्यका अर्थ है दूसरोंपर नहीं बल्कि अपने ऊपर राज्य करना अर्थात् अपने ऊपर अंकुश रखना । जिसने अपनी इन्द्रियोंपर अधिकार कर लिया है उसने सब-कुछ प्राप्त कर लिया है ।

जिस व्यक्तिने दण्डनीतिको ग्रहण किया, हथियार नीतिको अपनाया है उसे छल-कपटसे काम लेना ही पड़ता है। इस नीतिके साथ छल-कपट लगे हुए ही हैं ।

हम सबका मन्दिर आश्रम में है। आश्रममें भी नहीं, वह तो हमारे हृदयमें है। दो-चार पत्थर इकट्ठा करके बनाया हुआ मन्दिर किसी कामका नहीं । हम यदि अपने हृदयमें मन्दिर प्रतिष्ठित कर सकते हैं तो वह मन्दिर कामका है।

आश्रम यदि इसी तरह सुचारु रूपसे चलता रहे और इसमें दुष्ट व्यक्ति पैदा न हों तो यह आश्रम तीर्थक्षेत्र बन जाये ।

कहा जाता है कि नर्मदामें जितने कंकर हैं, वे सब शंकर हैं। नर्मदा अर्थात् भड़ौंचमें जो नदी है, केवल वही नहीं अपितु सारी नदियाँ । नदीके कंकरको धोकर उसपर बेलपत्र चढ़ाये कि वह शंकर रूप हुआ । केवल शंकर ही नहीं, यदि हम स्वच्छ मिट्टी लेकर इसका शिवलिंग-जैसा आकार बनायें और उसपर बेलपत्र चढ़ायें तो वह भी शंकर हो जाती है। यदि इससे भी आगे जाकर विचार करें तो हमारे हृदयमें ही शंकर विराजमान हैं।

हम तो मूर्तिपूजक भी हैं और मूर्तिभंजक भी। मूर्तिमें निहित पाषाणताके भंजक हैं, लेकिन मूर्तिमें प्रतिष्ठित ईश्वरकी भावनाके पूजक हैं।