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भाषण : कोमिल्लाकी सार्वजनिक सभामें

सार्वजनिक संगठनमें इतने निःस्वार्थ, योग्य, युवा और शिक्षित लोग काम नहीं करते रहे हैं जितने खादी-संगठनमें, क्योंकि दूसरा कोई भी संगठन ऐसा नहीं है जो उन लगभग असंख्य देशभक्त युवकोंको काम दे सके, जो केवल जीवन-यापनके एक सम्मान- जनक धन्धेसे ही सन्तुष्ट हो सकते हैं और जो ग्रामीण भाइयोंके निकट सम्पर्कमें रह कर उन्हींके जैसा रूखा-सूखा खाने और उनके सुख-दुःखके सच्चे भागीदार बनने में ही परम सन्तोष मानेंगे। क्या आप दूसरा कोई भी संगठन बता सकते हैं जिसमें इतनी क्षमता हो ?

आप मेरा विश्वास कीजिए, खादी-धर्म मर नहीं रहा है। खद्दरके प्रति लोगोंका उत्साह कम नहीं हो रहा है। पाँच सालका अनुभव बताता है कि वह निःसन्देह धीरे-धीरे किन्तु लगातार और आशाजनक रूपसे बढ़ रहा है। इसके सिवा दूसरी बात हो भी नहीं सकती थी। चूँकि भारतको खादीकी आवश्यकता है, चूँकि भारतके करोड़ों लोगोंको अपनी शक्ति कायम रखने के लिए पर्याप्त साधनकी आवश्यकता है, इसलिए कांग्रेसने प्रस्ताव पास करके यह आवश्यक कर दिया है कि कांग्रेसजन केवल सभा- समारोहोंके अवसरोंपर ही नहीं, बल्कि सदा खादी पहनें। वे यदा-कदा मिलोंका कपड़ा पहन सकते हैं, किन्तु तभी जब निर्वाहके लिए यह नितान्त आवश्यक हो जाये । किन्तु यदि वे सच्चे कांग्रेसी हैं तो वे सदा हाथ-कते सुतकी हाथ-चुनी खादीके सिवा दूसरा कोई कपड़ा नहीं पहन सकते ।

और अब दो शब्द अस्पृश्यताके सम्बन्धमें कहूँगा। स्वामी श्रद्धानन्दजी बहुत ही वीर और देशभक्त पुरुष थे। उन्होंने अस्पृश्योंके लिए अपने प्राण दे दिये। वे अस्पृ- श्योंको अपने प्राणोंके समान प्यार करते थे। वे उन्हें अपनी ही सन्तान मानते थे और यदि उनका वश चलता तो वे अस्पृश्यताको भारतसे मिटा देते। और अस्पृश्यताको मिटानेका क्या अर्थ है? उसका अर्थ है सबसे प्यार करना, उसका अर्थ है 'भग- वद्गीता' के इस महान् सन्देशको कार्य रूप देना : 'यदि तुम ईश्वरको जानना चाहते हो तो ब्राह्मण और भंगीसे समान व्यवहार करो।' लेकिन उन दोनों में क्या समानता है ? ब्राह्मण विद्वत्ता में भंगीसे सदा ही श्रेष्ठ होता है और मैं उन दोनोंसे समान व्यवहार कैसे करूँ ? 'भगवद्गीता' बताती है कि तुम उनसे वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम चाहते हो कि वे तुमसे करें अथवा जैसा तुम स्वयं अपने-आपसे करना चाहते हो ।

आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पश्यति'

'भगवद्गीता' की शिक्षा भी यही है। उस वीर शहीदने अपने जीवन में इसी शिक्षा को कार्य रूप दिया और वह उसके बलिदानसे पवित्र हो गई है। उन्होंने इसपर अपने रक्तकी मुहर लगा दी है। तो अब हम ऐसा करें जिससे वह रक्त हम सबको शुद्ध करे, जिससे हमारे मनमें अपने उन भाइयोंके प्रति, जिन्हें हम अहंकारवश अस्पृश्य कहते हैं, अलगाव या पृथक्ताका जो भाव हो उसकी आखिरी निशानीतक मिट जाये । ये लोग अछूत नहीं हैं, अछूत हम हैं। वे जितना ध्यान, जितना स्नेह दिये जानेके पात्र हैं, हम उन लोगोंको उतना ध्यान, उतना स्नेह देकर तो दिखायें। जब मैं