पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/५३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

२१८. स्वामीजीके संस्मरण

स्वामीजीसे मेरा पहला परिचय तब हुआ था जब वे महात्मा मुंशीराम के नामसे प्रसिद्ध । वह परिचय भी पत्रोंके जरिये हुआ था। उस समय वे कांगड़ी गुरुकुलके प्रधान थे। गुरुकुल शिक्षाके क्षेत्र में उनका महान् मौलिक योगदान है। वे पश्चिमकी रूढ़िवादी शिक्षा पद्धतिसे सन्तुष्ट न थे । अपने छात्रोंमें वे वैदिक शिक्षाका प्रचार करना चाहते थे और वे हिन्दी माध्यमसे पढ़ाते थे, अंग्रेजी माध्यमसे नहीं। वे चाहते थे कि अपने शिक्षा-कालमें विद्यार्थी ब्रह्मचर्यका पालन करें। दक्षिण आफ्रिकाके सत्या- ग्रहियोंके लिए उस समय जो धन इकट्ठा किया जा रहा था, उसमें चन्दा देने के लिए उन्होंने लड़कोंको उत्साहित किया था। वे चाहते थे कि लड़के खुद कुली बनकर, मजदूरी करके चन्दा दें क्योंकि दक्षिण आफ्रिकाका वह युद्ध कुलियोंका युद्ध ही था । लड़कोंने यह सब पूरा कर दिखाया और स्वयं कमाई हुई पूरी मजदूरी मेरे पास भेजी। इस विषयमें स्वामीजीने मुझे जो पत्र भेजा था, वह हिन्दी में था । उन्होंने मुझे ‘मेरे प्रिय भाई' कहकर सम्बोधित किया था। इस बातने मुझे महात्मा मुंशीरामका प्रेमी बना दिया। इससे पहले हम दोनों कभी मिले नहीं थे।

एन्ड्रयूज हम लोगोंके बीचके सूत्र थे। उनकी इच्छा थी कि जब कभी में देश लौटूं, उनके तीनों मित्रों, कवि ठाकुर, आचार्य रुद्र और महात्मा मुंशीरामसे परिचय प्राप्त करूँ ।

वह पत्र पाने के बाद हम दोनों एक ही सेनाके सैनिक बन गये । १९१५ में हम दोनों उनके प्रिय गुरुकुलमें मिले और उसके बादसे हर मुलाकातमें हम दोनों परस्पर निकट आते गये और एक दूसरेको ज्यादा अच्छी तरह समझने लगे। प्राचीन भारत, संस्कृत और हिन्दीके प्रति उनका प्रेम असीम था । बेशक, असहयोगके पैदा होने के बहुत पहले से ही वे असहयोगी थे। स्वराज्यके लिए वे अधीर थे । अस्पृश्यतासे वे नफरत करते थे और अस्पृश्योंकी स्थिति ऊँची करना चाहते थे। अस्पृश्योंकी स्वाधीनतापर कोई बन्धन उन्हें सह्य नहीं था ।

जब रौलट अधिनियमके विरुद्ध आन्दोलन शुरू हुआ तो उस आन्दोलनका स्वागत करनेवालों में वे सबसे पहले थे। उन्होंने मुझे बहुत ही प्रेमसे भरा एक पत्र भेजा । किन्तु वीरमगाम और अमृतसर-काण्डके बाद सत्याग्रहका स्थगित किया जाना वे नहीं समझ सके। उस समयसे हमारे बीच मतभेद शुरू हुए किन्तु उनसे हमारे भाई-भाईके सम्बन्ध में कभी कोई अन्तर नहीं पड़ा। उस मतभेदसे मुझपर उनका बाल-सुलभ स्वभाव प्रकट हुआ। परिणामका विचार किये बिना ही वे जो सत्य समझते थे, कह देते थे। वे अति साहसिक थे । समय बीतने के साथ-साथ मेरे सामने हम दोनों के स्वभावका अन्तर स्पष्ट होता गया किन्तु उससे तो उनकी आत्माकी शुद्धता ही सिद्ध हुई। जैसा सोचना, वैसा ही कहना कोई दोष नहीं है। यह तो एक गुण है। यह तो सत्यप्रियताका सर्वप्रधान लक्षण है। स्वामीजी मनकी बात स्पष्ट कहते थे ।