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स्वामीजीके संस्मरण

[ सत्यागृह-स्थगन सम्बन्धी ] बारडोलीमें किये गये निश्चयसे उनका दिल टूट गया। मेरी तरफसे वे निराश हो गये । उनका प्रकट विरोध बहुत जबर्दस्त था। मेरे नाम उनके निजी पत्रोंमें और भी जोरदार विरोध होता था। किन्तु जितना जोरदार उनका विरोध होता था उतना ही जोरदार उनका प्रेम भी होता था। अपने प्रेमका विश्वास केवल पत्रों में ही दिला देनेसे वे सन्तुष्ट न थे। मौका मिलने पर उन्होंने मुझे ढूंढ़ निकाला और मुझे अपनी स्थिति समझाई और मेरी स्थिति समझनेकी भी कोशिश की । मगर मुझे मालूम होता है कि मुझे ढूंढ़ निकालनेका असली कारण यह था कि वे मुझे विश्वास दिला सकें कि एक छोटे भाईके समान मुझपर उनकी प्रीति जैसीकी-तैसी बनी हुई है -गोया यह विश्वास दिलाने की कोई जरूरत थी !

आर्य समाज और उसके संस्थापकके' सम्बन्ध में मेरे कथनोंसे और स्वयं उनके बारे- में मेरी उक्तियोंसे उन्हें बहुत गहरी ठेस लगी, परन्तु हमारी मित्रतामें इस धक्केको सह लेनेको शक्ति थी। वे समझ नहीं पाते थे कि महर्षिके विषयमें मेरी सामान्य धारणा और अपने व्यक्तिगत शत्रुओंके प्रति ऋषिकी असीम क्षमाका एक साथ मेल कैसे बैठ सकता है। महर्षि में उनकी इतनी अधिक श्रद्धा थी कि उनपर या उनकी शिक्षाओंपर कोई भी टीका वे सहन नहीं कर सकते थे।

शुद्धि आन्दोलनके लिए मुसलमानोंके पत्रोंमें उनकी बड़ी कड़ी आलोचना और निन्दा की गई है। स्वयं मैं उनके दृष्टिकोणको स्वीकार नहीं कर सका था । अब भी मैं उसे स्वीकार नहीं करता। किन्तु मेरी रायमें उनके दृष्टिकोणसे उनकी स्थिति पूरी तरह अभेद्य थी। जबतक शुद्धि और तबलीग नैतिकता और वैधताकी मर्यादाके भीतर रहें, तबतक दोनों ही बराबर छूटके अधिकारी हैं। लेकिन यह अवसर इस अत्यन्त विवादग्रस्त विषयपर विचार करनेका नहीं है । तबलीगमें और शुद्धिमें, जो उसका जवाब है, आमूल परिवर्तन करना होगा। संसारके धर्मोके उदार अध्ययनमें उन्नति होने के साथ-साथ शुद्धि या धर्म-प्रचारका वर्तमान बेढंगा तरीका, जो तत्त्वसे अधिक रूपपर ही ध्यान देता है, निश्चय ही बिलकुल बदल जायेगा । यह तरीका तो एक दलकी अधीनताको छोड़ कर दूसरे दलमें जा मिलना है और एक-दूसरेके धर्मको गाली देना है। इसीसे परस्पर घृणा फैलती है।

अगर हम हिन्दू और मुसलमान दोनों, शुद्धिका आन्तरिक अर्थ समझ सकें तो स्वामीजीकी मृत्युसे भी लाभ उठाया जा सकता है।

एक महान् सुधारकके जीवनके संस्मरणोंको में सत्याग्रहाश्रममें उनके कुछ ही महीनों पहलेके आखिरी आगमनकी बातकी चर्चा किये बिना खत्म नहीं कर सकता । मुसलमान मित्रोंको में विश्वास दिलाता हूँ कि वे मुसलमानोंके दुश्मन नहीं थे। वे बेशक कुछ मुसलमानोंका विश्वास नहीं करते थे। किन्तु उन लोगोंसे उनको द्वेष नहीं था । उनका खयाल था कि हिन्दू दबा दिये गये हैं और उन्हें बहादुर बनकर अपनी और

१. स्वामी दयानन्द ।

२. देखिए खण्ड १४।