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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
गोरक्षा शुद्ध स्वार्थके खयालसे ही आवश्यक है, तो गोरक्षाका भाव हिन्दुओंतक ही सीमित न रहकर विश्व भर में फैल जाना चाहिए था; क्योंकि मनुष्य प्रकृतिसे ही स्वार्थी होता है। अगर इसके प्रतिकूल गायकी रक्षा करना उसकी लाचारी और दीन स्वभावके कारण जरूरी है, तो भेड़ और हिरन जैसे दूसरे जानवर भी मनुष्यकी रक्षा पानके उतने ही हकदार हैं। तब फिर गायमें ऐसा कौन-सा खासगुण है जो सिर्फ हिन्दुओंके लिए ही उपयोगी है या जिसे सिर्फ हिन्दू ही जानते हैं और जो अन्य पालतू जानवरोंमें नहीं है। अगर हिन्दू लोग, जिनमें शाकाहारी और कट्टरपन्थी हिन्दू भी शामिल हैं, भैंसों, बकरों और भेड़ों इत्यादिको आहार या बलिदानके लिए मार सकते हैं तब मुसलमानों द्वारा आहार या बलिदानके निमित्त गायोंके कत्ल करनेसे हमको चिढ़नेका क्या हक है? क्या हिन्दुओं द्वारा आहार अथवा बलिके लिए पशुवध करना छोड़ देनेके बाद ही मुसलमानोंसे गायको न मारनेकी हमारी अपील ज्यादा मुनासिब और जोरदार न होगी?

पत्र-प्रेषक महोदयने जो दलील पेश की है उसके पक्षमें बहुत कुछ कहा जा सकता है। लेकिन मनुष्य कोरे तर्कसे शासित नहीं होता। वह एक बहुत ही जटिल प्राणी है। इसलिए उसपर बहुत-सी बातें अपना प्रभाव डालती हैं और उसके अमुक काम करने या न करनेके पीछे कई कारण हुआ करते हैं। अगर कोई हिन्दू गायकी रक्षा करता है, तो उसे तर्ककी रूसे तो अन्य पशुओंकी भी रक्षा करनी चाहिए; लेकिन सब बातोंको ध्यान में रखते हुए हम उसके गोरक्षा करनेपर महज इस बिनापर एतराज नहीं कर सकते कि वह अन्य पशुओंकी रक्षा नहीं करता। इसलिए विचार- णीय प्रश्न इतना ही रह जाता है कि उसका गोरक्षा करना उचित है या नहीं। यदि सामान्य रूपसे अहिंसा में विश्वास रखनेवालेके लिए पशु-वध न करना धर्म माना जाये, तब तो उसका गोरक्षा करना गलत हो ही नहीं सकता। प्रत्येक हिन्दू, बल्कि सभी धार्मिक व्यक्ति ऐसा विश्वास करते हैं। सामान्यतः पशुओंको न मारने, और इसलिए उनकी रक्षा करनेके कर्त्तव्यको एक निर्विवाद बात मान ली जानी चाहिए। उस हालत में हिन्दूधर्मके लिए यह एक सराहनीय बात है कि उसने गोरक्षाके कामको कर्त्तव्यके रूपमें अपना लिया है। साथ ही जो हिन्दू केवल गोरक्षा ही करता है और सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरे पशुओंकी रक्षा नहीं करता वह हिन्दुत्वका सही पालन नहीं करता। गाय तो एक प्रतीक ही है; और उसकी रक्षा कमसे-कम हिन्दू-मात्रसे अपेक्षित है। लेकिन जैसा कि में अपने पिछले लेखोंमें बतला चुका हूँ, वह अपने इस प्रारम्भिक कर्त्तव्यपालनसे भी च्युत हो रहा है।

हमें गोरक्षाके लिए प्रेरित करनेवाला भाव 'शुद्ध स्वार्थपूर्ण' भाव ही नहीं है; हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि स्वार्थभाव उसमें आ जरूर जाता है। अगर वह शुद्ध स्वार्थपूर्ण ही होता तो गाय, पूर्ण लाभ देना बन्द करते ही, मार डाली जाती, जैसा कि अन्य देशोंमें होता है। हिन्दू लोग गायको चाहे वह उनके ऊपर एक भारी