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जबर्दस्ती या धोखे और प्रलोभनोंका सहारा नहीं लिया जाता और जबतक दोनों पक्षोंको पूरी स्वतन्त्रता है और वे सयानी उम्र और परिपक्व बुद्धिके हैं। इसलिए जिनका शुद्धि में विश्वास है उन्हें इस अपीलपर सहायता देनेका पूरा अधिकार है।

संगठन वास्तव में एक सही आन्दोलन है। अगर किसी जातिको अपना पृथक् अस्तित्व रखना है तो उसे अपना संगठन करनेका पूरा अधिकार है, बल्कि उसके लिए यह परमावश्यक है । मैं इस आन्दोलनसे इसलिए अलग रहा हूँ कि संगठनके विषयमें मेरे विचार कुछ अनोखे हैं। मेरा विश्वास संख्यासे अधिक गुणपर है । आजकल संख्यापर, यहाँतक कि गुणकी उपेक्षा करके संख्यामें विश्वास रखनेका चलन है । सामाजिक और राजनीतिक अर्थशास्त्रमें निस्सन्देह संख्याका स्थान है। बात केवल इतनी है कि मैं केवल संख्याका उस प्रकार संगठन करनेमें असमर्थ हूँ जैसा कि आजकल हो रहा है । इसलिए मेरे निकट अस्पृश्यता निवारण सम्बन्धी कार्यके लिए चन्देकी अपीलका ही महत्त्व है। इसकी अपनी निराली ही शक्ति है । हिन्दू धर्मके सुधार और इसकी सच्ची रक्षाके लिए अछूतोद्धार सबसे बड़ी वस्तु है । इसमें सब कुछ शामिल है और इसलिए अगर हिन्दू धर्मका यह सबसे बड़ा कलंक मिट जाये तो हमें वह सब-कुछ अपने-आप ही मिल जायेगा जिसकी आशा शुद्धि और संगठनसे की जाती है। और मैं यह इसलिए नहीं कहता कि अछूतोंकी, जिन्हें हरएक हिन्दूको गले लगाना चाहिए, संख्या बहुत बड़ी है किन्तु इसलिए कहता हूँ कि एक पुराने और बर्बर रिवाजको तोड़ डालनेकी समझ और समझसे उत्पन्न शुद्धिसे जो शक्ति हमें मिलेगी वह अदम्य होगी । इसलिए अस्पृश्यता निवारण एक आध्यात्मिक क्रिया है । स्वामीजी उस सुधारके जीवन्त प्रतीक थे, क्योंकि वे आमूल सुधार करना चाहते थे । वे कोई समझौता नहीं कर सकते थे और न आड़े आनेवालेको वे बख्श सकते थे। अगर उनकी चलती तो वे बातकी बात में हिन्दू धर्मसे अस्पृश्यताको समाप्त कर डालते। वे हरएक मन्दिरको, हरएक कुएँको, सबके साथ बराबरीके हक देते हुए अछूतोंके लिए खोल देते और परिणामोंको झेल लेते । स्वामी श्रद्धानन्दजीके लिए मैं इससे अच्छा कोई स्मारक नही सोच सकता कि हरएक हिन्दू आजसे अपने दिलोंसे अस्पृश्यताकी अपवित्रता निकाल दे और अस्पृश्योंके साथ अपने सगोंके समान बरताव करे। किसी व्यक्ति द्वारा दी गई पैसेकी सहायता तो, मेरी समझ में, अस्पृश्यताको हिन्दू धर्मसे सदाके लिए निकाल डालने के उसके दृढ़ निश्चयका चिह्न-भर होगी ।

स्वामीजीको सामुदायिक और धार्मिक रूपसे श्रद्धांजलि देनेके लिए जनवरीकी ९ तारीख निश्चित की गई है। मुझे आशा है कि हर शहर, हर गाँवमें उनका श्राद्ध संस्कार मनाया जायेगा । मगर इस संस्कारमें भाग लेनेवाले यदि इसके साथ ही अपने ऊपरसे अस्पृश्यताका कलंक नहीं धो डालते, तो संस्कारका वास्तविक महत्त्व ही समाप्त हो जायेगा । प्रत्येक 'अछूत' को श्रद्धांजलि समारोहोंमें शामिल होना चाहिए; और क्या ही अच्छी बात होती अगर उसी दिन अछूतोंके लिए सभी मन्दिर खोल दिये जायें। अगर संगठित रूपसे उद्योग किया जाये तो उस दिन सूर्यास्त के पहले ही कोष भर जा सकता है ।

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