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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विधान सभामें बहस करने और मत लेने, या बाहर सभाएँ करके विरोध करनेसे तबतक कुछ भी नहीं होगा जबतक कि उक्त सभा कांग्रेसका अनुसरण न करे और इसके सदस्य कांग्रेसकी चालू राजनीतिको न मानें ।

देशी राज्योंको भी थोड़ा स्थान मिला है ।

देशी राज्योंके बाद स्वभावतः बृहत्तर भारतको स्थान दिया गया है ।

प्रवासी हिन्दुस्तानी, चाहे वे दक्षिण आफ्रिकामें हों या केनियामें, फीजीमें हों या गियानामें, लंकामें रहते हों अथवा मलायामें, अमेरिकामें बसे हों या आस्ट्रेलियामें, अथवा कहीं भी हों, उनकी स्थिति अनिवार्यतः स्वदेशवासी हिन्दु- स्तानियों की स्थितिपर ही निर्भर करेगी; और इधर हिन्दुस्तानका स्वराज्य हमारे अपने प्रवासी भाइयोंकी बहादुर और अडिग वृत्तिपर निर्भर होगा ।

मेरा खयाल है कि कांग्रेसके अध्यक्षका यह सुझाव केवल एक शुभेच्छा मात्र है। कि कांग्रेसका अधिवेशन एक बार दक्षिण आफ्रिकामें भी किया जाये । इस विषयपर जितना विचार किया गया है, उसकी अपेक्षा और अधिक गहराईसे विचार करनेकी जरूरत है । अध्यक्षके भाषणमें श्री एन्ड्रयूजकी अद्भुत सेवाओंका भी उल्लेख नहीं किया गया है । मेरे खयालसे यह भूल अनजाने हुई है और इसका कारण यह है कि अध्यक्ष अनेक स्थानीय कार्यों में बहुत व्यस्त रहे हैं ।

एशियाई संघका उल्लेख भी बहुत थोड़ी-सी पंक्तियोंमें किया गया है। श्री आयं- गारने इस बातपर खेद प्रकट किया है कि हम समस्त एशियाई देशोंसे अपने सां- स्कृतिक और व्यावसायिक सम्बन्धोंकी सम्भावनाओंकी दीर्घकालसे उपेक्षा करते आये हैं। मैं कहना चाहता हूँ कि सांस्कृतिक सम्बन्धोंकी ओर हमारे महाकवि और व्याव- सायिक सम्बन्धोंकी ओर हमारी बड़ी-बड़ी व्यापारिक पेढ़ियाँ पर्याप्त ध्यान दे रही हैं।

अध्यक्ष महोदयकी अदम्य आशावादिताकी झलक हमें साम्प्रदायिकता और राष्ट्रीयता-सम्बन्धी अनुच्छेदोंमें मिलती है । वे कहते हैं :

मुझे पूरा विश्वास है कि जहाँ ईमानदारीके साथ और लोगोंको समझाने- बुझाने के तरीके से गहरे प्रचारके जरिये सम्प्रदायवादमें निहित भ्रान्तियोंका स्पष्ट विश्लेषण किया जायेगा, वहाँ यह बुराई टिक नहीं सकेगी। सौभाग्यसे भार- तोयों में पूर्वग्रह और भय तथा आशंकाका भाव बहुत गहरा जमा हुआ नहीं है। और साम्प्रदायिकता तो इसी सतही पूर्वग्रह और आशंकाकी उपज है।

'सहिष्णुताकी आवश्यकता' शीर्षकके अन्तर्गत उनका यह सारगर्भित कथन है :

यद्यपि प्रत्येक जातिको दूसरे धर्मवालों को अपने धर्ममें लानेकी छूट होनी चाहिए, किन्तु वास्तवमें अब धर्मान्तरणका आश्रय लेना उपयोगी अथवा आवश्यक नहीं रहा है, क्योंकि धर्म प्रचारके किसी खास प्रयत्नकी अपेक्षा किसी जातिके श्रेष्ठतम और परम धर्मप्राण व्यक्तिके आचरण उस जातिके धर्म-प्रचार के कहीं अधिक उपयुक्त और कारगर साधन सिद्ध होते हैं । किन्तु यदि धर्म-