प्रचारका प्रयत्न किया ही जाता है तो वह खुला और सामान्य होना चाहिए; वह गुप्त रूपसे या किन्हीं विशेष पुरुषों या स्त्रियोंका धर्म-परिवर्तन करनेके लिए नहीं किया जाना चाहिए। हमें यह समझ लेना चाहिए कि कोई भी महान् और पुराना धर्म केवल जनसंख्या में वृद्धि होनेसे ही सत्य, सुन्दरता अथवा आध्या- त्मिकतामें बढ़ नहीं जाता।
वे इस अनुच्छेदके अन्तमें अशोकके शिलालेखों में से यह सुन्दर उद्धरण देते हैं:
जो मनुष्य अपने धर्मका तो आदर करता है, किन्तु अपने धर्मके प्रति आसक्तिके कारण उसका गौरव बढ़ानेके खयालसे दूसरे धर्मोको हीन बताता है, वह वास्तव में अपने इस प्रकारके आचरणसे अपने धर्मको बड़ी ही गहरी हानि पहुँचाता है।
स्पष्ट है कि अध्यक्ष साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्वके विरोधी हैं। वे कहते हैं :
'साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व' शब्दोंका प्रयोग बहुत गलत किया गया है और ये शब्द ठीक अर्थके बोधक नहीं हैं; क्योंकि समस्त सार्वजनिक प्रश्नोंमें, देशकी समस्याओंमें और उनके किसी खास हलमें सभी जातियोंकी समान दिलचस्पी है।
वे फिर कहते हैं :
हमें यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि मनुष्य-मनुष्यके बीच न्याय करना जाति-जातिके बीच न्याय करना है। किसी समाज या जातिके सदस्योंको समस्त पदोंपर कब्जा करनेसे रोकनके लिए बस इतना ही जरूरी है कि उस समाज या जातिके विरुद्ध एक निषेधक नियम बना दिया जाये ।
अध्यक्ष महोदय कहते हैं :
राजनीतिमें धर्मका और प्रायः रूढ़िगत धर्मका बेजा हस्तक्षेप रोका जाना चाहिए, क्योंकि यह एक आदियुगीन अथवा मध्ययुगीन कल्पना है, जिसका जन्म साम्प्रदायिक राज्योंमें हुआ है और वह कल्पना धर्म और राजनीति, दोनोंके लिए समान रूपसे घातक है ।
किन्तु वे आगे कहते हैं:
में नीति धर्म अथवा उस आध्यात्मिक गुणकी बात नहीं कहता जो सभी धर्मोमें समान रूपसे मिलता है, क्योंकि वह तो राजनीति और संस्थाओंको शुद्ध, सौम्य और स्वस्थ बनाता है।
श्रीयुत आयंगार आगे कहते हैं:
राजनीतिक विवादकी उत्तेजनामें हमें यह न भूल जाना चाहिए कि प्रत्येक धर्मके लिए शक्तिका स्रोत ईश्वर होता है और उसकी जड़ें प्रह्लाद-जैसे