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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

परन्तु अब तो तुम्हें कातना सिखानेकी तैयारी करनी है। उसके सिलसिलेमें जो सीखना जरूरी हो वह सीख लेना है, अर्थात् चरखेको सुधारना, रुईकी किस्में, लोढ़ना, पींजना, कातना, फुंकारना, आँटी बनाना, तार जोड़ना वगैरा सब क्रियाएँ । माल बनाना आना चाहिए। साड़ी चढ़ाना आना चाहिए। और जहाँ जाना होगा वहाँ इन क्रियाओंके साथ दूसरा जो-कुछ सीखनेको मिल जाये वह सीख लेना चाहिए और इसी सिलसिलेमें संस्कृत और हिन्दी तो पक्की हो ही जानी चाहिए। संस्कृत- में 'गीताजी' के अर्थ व्याकरण सहित पक्के होने चाहिए। तकली तो है ही। कराचीसे तार आया है कि तुम्हारा नाम बोर्डके सामने गया है। यह बात सुनकर मुझे खुशी हुई है।

मुझे पत्र लिखती रहना और खूब उत्साहपूर्वक काम करना ।

अब २ से ८ तारीखतक गोंदिया, नागपुर, वर्धा, अकोला, अमरावती, इस प्रकार कार्यक्रम रहेगा। निश्चित शहर नहीं जानता। वर्धा पत्र भेजना ठीक होगा ।

बापूके आशीर्वाद
 

चि० मणिबहन पटेल

सत्याग्रह आश्रम

साबरमती

[ गुजरातीसे ]

बापुना पत्रो: मणिबहेन पटेलने

२२४. अस्पृश्यताकी गुत्थियाँ

में इस अंकमें भाई गोविन्दजी जादवदासका पत्र उनके दिये हुए शीर्षकके साथ ही प्रकाशित कर रहा हूँ। उनका दिया हुआ शीर्षक है- "हिन्दू धर्मकी अधोगति " उनका आशय यह है कि यदि हमें अस्पृश्यताको दूर करना है तो अस्पृश्योंके लिए अलग स्कूल, मन्दिर और कुएँ किसलिए? इस दलीलको नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता । दक्षिण आफ्रिकामें भी ऐसे ही प्रश्न उठा करते थे और अब भी उठते हैं । भारतीयोंके लिए अलग स्कूल खोलना भारतीयोंकी अस्पृश्यताकी आयुको लम्बा करना है -- ऐसी दलील वहाँ मैंने स्वयं की थी और जिसपर बीतती है वही दूसरोंकी वेदनाको समझ सकता है, इस न्यायसे में भाई गोविन्दजीके दुःखको समझ सकता हूँ ।

लेकिन जहाँ मैंने देखा कि जिस वस्तुका अस्तित्व है, उसके अस्तित्वकी अवगणना करके चलना मूर्खता होगी, वहाँ मैंने इस भेदको अच्छी तरह समझ-बूझकर रहने दिया और अपना काम निकाला। फलतः वहाँ मैंने अलग स्कूलोंकी बात को स्वीकार किया ।

१. आजकल तकुएपर लोहेकी गिरौं होती है; परन्तु उस समय गिर्रोकी जगह गोंदकी मददसे वहाँ थोड़ा-सा सूत लपेट दिया जाता था और माल इसी सूतपर घूमती थी; इसे साड़ी कहते थे ।