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अस्पृश्यताकी गुत्थियाँ

मैंने वहाँकी रेलोंमें भारतीयोंके लिए पहले और दूसरे वर्गके डिब्बे अलग रखने की बातको भी स्वीकार किया। जिस तरह भाई गोविन्दजी ऐसे भेदका विरोध करते हैं वैसे ही मैंने भी किया लेकिन जहाँ कौमकी हस्ती ही मिट जानेका भय पैदा हो गया, वहाँ मैंने ऐसे भेदको स्वीकार किया जिससे उस भेदके रहते हुए भी उसकी तीव्रताको कम किया जा सके। उदाहरणके लिए, पहले भारतीय केवल तीसरे वर्ग में ही मुसाफिरी कर सकते थे । आन्दोलनके फलस्वरूप उन्हें, वे चाहें तो, दूसरे और पहले वर्गके टिकट देने का आदेश जारी हुआ, लेकिन इसके साथ ही उनके लिए प्रथम और द्वितीय वर्गके डिब्बे अलग रखने का निश्चय भी हुआ। विरोध करके भी अन्तमें हमने इतने भेदको स्वीकार कर लिया। सरकार हमारी मांगी हुई सुविधा तो दे सकती है लेकिन अन्य लोगोंको हमारे साथ बैठने के लिए कैसे विवश कर सकती है ?

इस विचारसरणका अनुसरण करते हुए में इस निश्चयपर पहुँचा कि जबतक अन्त्यज सामान्य मन्दिरों आदिका उपयोग नहीं कर सकते तबतक मन्दिरों आदिके उपयोगसे वे वंचित रह जायें इससे तो यही बेहतर होगा कि उनके लिए अलग संस्थाएँ बनें और उन्हें उनका लाभ मिले। अस्पृश्यता फिलहाल वातावरणसे तो चली गई है तथापि अनेक लोग अभी भी अपने व्यवहारमें उसका सर्वथा नाश करनेके लिए तैयार नहीं हुए हैं। जबतक ऐसी स्थिति है तबतक अन्त्यजोंके मित्र क्या करें ? अपनी शुद्धिका प्रमाण उन्हें कैसे देना चाहिए ? उत्तर यही होगा कि ऐसा अन्त्यजों- के लिए मन्दिर आदि बनवाकर ही किया जा सकता है।

भाई गोविन्दजी कहते हैं कि ऐसे मन्दिर आदि भले ही बनाये जायें लेकिन आप उनके साथ 'अन्त्यजों के लिए ऐसा अप्रिय विशेषण क्यों जोड़ते हैं ? बात यह है कि ऐसा विशेषण उन्हें जान-बूझकर तो कोई देता ही नहीं है। जो मन्दिर आदि इस समय बन रहे हैं उसका उपयोग उन्हें बनानेवाले तथा अन्त्यजोंके अन्य मित्र तो करते ही हैं। इसलिए इस दृष्टिसे तो अन्त्यजोंके लिए बननेवाली संस्थाएँ सार्वजनिक हैं। लेकिन उनके बारे में प्रथम अधिकार अन्त्यजोंका है; उनके उपयोग में अन्त्यज बन्धुओं- का विचार सबसे पहले होता है, उनकी सुविधाका ध्यान पहले रखा जाता है।

इसलिए यद्यपि में भाई गोविन्दजी जैसे अन्त्यज भाईके दुःखको समझ सकता हूँ। तो भी उन्हें यह मान लेनेका सुझाव देता हूँ कि "अन्त्यज सर्वसंग्रह "" और उसके पीछे मन्दिर आदि बनानेका आन्दोलन पवित्र, स्तुत्य और अन्त्यजोंके लिए लाभदायक है।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, ९-१-१९२७

१. देखिए " अन्त्यज सर्वसंग्रह ", १२-१२-१९२६ ।