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२२५. भेंट : डॉ० भगवानदाससे

९ जनवरी, १९२७
 

आरम्भ में श्री भगवानदासने इस आशयकी बात कही -महात्माजी, इस देशके राजनीति विषयके तथा अन्य विषयके कल्याणके लिए जो परमावश्यक परमोपयोगी उपाय सुझको सूझ पड़ते हैं, और जिनके प्रचारके लिए मैं अपनी अति अल्पशक्तिसे छः वर्ष से यत्न कर रहा हूँ, उनके विषय में में आपका मत जानना चाहता हूँ। यदि आप उन उपायोंका समर्थन करेंगे तो देश उनको आदरसे देखेगा, और स्यात् काममें लानेका यत्न करेगा, क्योंकि आपमें इस कालमें तपस्याका बल बड़ा भारी है, और इस कारणसे देशको श्रद्धा आपमें बहुत है। अभी हालमें भी मैंने उन्हीं उपायोंको प्रस्तावोंके रूपमें रखकर श्री शिवप्रसाद गुप्तजीके' हाथ गौहाटी कांग्रेसके सामने उपस्थित करनेके लिए भेजा था, पर मालूम हुआ कि उनके विषयमें केवल इतना ही कार्य हुआ कि प्रतियाँ अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीके सदस्योंको बाँट दी गई। उन्हीं प्रस्तावोंकी एक प्रति प्रश्नोंके रूपमें रखकर मैंने आपके पास श्री कृपालानीजीके द्वारा भिजवाई है।

महात्माजीने कहा कि मैं उन प्रस्तावोंका उत्तर पीछे लिखकर आपके पास भेज दूंगा ।

श्री भगवानदासने कहा -- - उन्हींका आशय लेकर में इस समय यथासम्भव आपका मत जाननेका प्रयत्न करूँगा । समयके अभावसे लिखित प्रश्नावलीको जो बातें पूछनेको रह जायें, उनका उत्तर आप अनुग्रह करके पीछेसे लिखित रूपमें भिजवा देंगे। अब में प्रश्न करता हूँ ।


[प्रश्न ] -- आपके विचारमें सच्चे स्वराज्यका यह मुख्य तत्व है या नहीं कि जनताके चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा देशका कानून बने और ऐसे प्रतिनिधि चुने जायें जो समाजके उत्तम स्व हों, अधम स्व नहीं, अर्थात् जो ज्ञानी, अनुभवी, निःस्वार्थ और लोकहितैषी हों ?

[उत्तर] -- यह भी मुख्य तत्वोंमें है ।

इसके सिवा यदि और भी कोई मुख्य तत्त्व हैं तो वे कौन हैं ? मेरी कल्पना है कि प्रत्येक मनुष्य धर्मको समझे। तब प्रतिनिधिकी आवश्यकता ही नहीं रहती । यह आदर्श स्वराज्य है। इसमें शासक और शासनकी आवश्यकता

१, काशी निवासी बाबू शिवप्रसाद गुप्त, महान् दानी, और बनारसके भारत माता मन्दिरके निर्माता;

कांग्रेसके कर्मठ कार्यकर्ता ।