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भेंट : डॉ० भगवानदाससे

आपने इस विषयमें कोई विशेष प्रयत्न किया है या करना चाहते हैं ?

मैंने व्यक्तिगत प्रयत्न काफी किया और वह आज भी जारी है। हमारे यहाँ इस प्रचार के लिए अधिक लोगोंका अभाव है, अर्थात् हमारे यहाँ ऐसे बहुत कम मनुष्य हैं जो अन्य धर्मोके गुण-अवगुण अलग करके, गुणग्राही बनकर सब धर्मोके गुणोंका समन्वय करके लोगोंके सामने रखें ।

तो क्या आपके जैसे प्रभावशाली नेता यह यत्न करना उचित नहीं समझते कि भारतवर्ष में जो धर्म प्रचलित हैं उनके कुछ चुने हुए उदार-हृदय, उदार बुद्धि प्रतिनिधि एकत्र होकर एक कमेटी बनाकर इस प्रकारसे सब धर्मोकी हार्दिक एकताके लिए व्याख्यान, लेख, आचार द्वारा यत्न करें ?

मेरी समझके अनुसार यथाशक्ति मैंने प्रयत्न किया है परन्तु विद्वान् लोगोंको इक- ट्ठा करके ऐसा प्रयत्न कराने की योग्यता मुझमें नहीं दीखती। इसलिए मैंने अपने व्यक्तिगत प्रयत्नसे सन्तोष मान लिया है।

समयको कमीसे अब दूसरे विषयपर एक प्रश्न कर लेता हूँ | हिन्दू सभाको ओरसे शुद्धि और संघटनकी पुकार हो रही है। आपके विचारमें क्या शुद्धिका काम बिना "कर्मणा वर्णः " के सिद्धान्तको माने चल सकता है, और संघटनका काम भोजनकी उस परस्पर अस्पृश्यताके मिटे बिना हो सकता है जो इस समय हिन्दू समाजकी हजारों जात्युपजातियोंमें फैली हुई है ?

शुद्धि और संघटनके बारेमें मैंने अपने विचार 'यंग इंडिया' में श्रद्धानन्दजीके लिए जो स्तुति-लेख' लिखा है, उसीमें बताये हैं। उससे ज्यादा कहने में असमर्थ हूँ। हाँ, इतना कह दूं कि भोजनके बारेमें जो पंक्तिभेद भी आजकल रखा जाता है वह हिन्दू संघटनका घातक है, इसमें कुछ शक नहीं है

आपने तारीख ६-१-१९२७ के 'यंग इंडिया' में इस आशयसे लिखा है, तब- लोगको भी, और शुद्धिको भो, जो तबलीगका जवाब है, जड़से बदलना होगा। संसारके धर्मोका उदार-बुद्धिसे अध्ययन करनेका अवश्य यह फल होगा कि धर्म परिवर्तनका वर्तमान अभद्र प्रकार समूल बदल जाये, जो ऊपरी आकारको ही देखता है और तात्त्विक वस्तुको नहीं। अपनी भक्तिको एक दलसे हटाकर दूसरे दलको देना, और प्रतिस्पर्धासे भिन्न धर्मवालोंका एक दूसरेको बुरा कहना इसीसे परस्पर द्रोह पैदा होता है। " “शुद्धिका तीसरा रूप अन्वर्य 'कन्वर्शन' अर्थात् धर्मपरिवर्तन है। वर्धमान सम्मर्षण (अन्योऽन्य सहन) और बुद्धि प्रकाशके युगमें ऐसे धर्मपरिवर्तनको उपयोगिता में मुझे बहुत सन्देह है। मैं ऐसे धर्मपरिवर्तनका विरोध करता हूँ, चाहे हिन्दू लोग उसको शुद्धि कहें, चाहे मुसलमान लोग तबलीग, चाहे ईसाई लोग प्रॉसी- लैटेजिंग ।


१. देखिए " स्वामीजीके संस्मरण ", ६-१-१९२७ ।