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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है और शालाके अध्यापक या छात्र उसे तुरन्त ठीक नहीं कर सकते। चरखा खराब हो जानेपर उसे सुधारनेमें काफी वक्त लगता है। बड़ी तादादमें छात्रों द्वारा चरखोंसे सूत काते जाने की परिस्थितिमें उनके कामकी निगरानी करना सम्भव नहीं होता। इसके विपरीत, तकली बहुत ही सस्ती होती है। इसे एकसाथ हजारों छात्र चला सकते हैं। कमरा लोगोंसे भरा हुआ होनेपर भी यह चलाई जा सकती है क्योंकि हम लगभग नहींके बराबर जगहमें इसका प्रयोग कर सकते हैं। एक तो यह खराब होती ही कम है; और यदि खराब हो भी जाये तो तुरन्त बदल दी जा सकती है। इसके अलावा, कितने ही छात्र एकसाथ तकलीपर काम क्यों न कर रहे हों, उनकी कताईकी निगरानी की जा सकती है। सामूहिक रूपसे कुल मिलाकर चरखेकी अपेक्षा तकलीसे अधिक सूत कतता है; किन्तु तकलीकी प्रशंसामें इतना कहनेपर भी यह कहनेकी जरूरत नहीं है कि यदि कोई शाला ऊपर बताई गई कठिनाइयोंको दूर कर सकती है तो वह तकलीके बजाय चरखेसे काम ले सकती है। इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं हो सकती।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ११-११-१९२६

१५. टिप्पणियाँ

खद्दर और सरकारी नौकर

एक सज्जन लिखते हैं :

कई सरकारी नौकर हमारे फेरीवालोंके पहुँचनेपर हाथकता और हाथबुना खद्दर खरीदने की बात सुनते हो काँप उठते हैं। उनका खयाल है कि उन्हें खद्दर नहीं खरीदना चाहिए और इधर बम्बई सरकार खुले तौरपर लोगोंसे देशी उद्योग-धन्धोंको प्रोत्साहित करनेकी अपील कर रही है। क्या आप बता सकते हैं कि मद्रासके सरकारी नौकरोंको खादी खरीदने में कोई भय या इसकी मनाही तो नहीं है?

अगर मैं इस सवालका जवाब दे सकता तो मुझे बड़ी खुशी होती, मगर मैं इसपर अधिकारपूर्वक कुछ नहीं कह सकता। वैसे किसी भी सरकार द्वारा हाथकते और हाथबुने कपड़ेके व्यवहारकी मनाही मेरी समझ के बाहरकी बात है। यह तो समझा जा सकता है कि एक खास तरहकी पोशाक पहनने पर जोर दिया जाये, मगर वह पोशाक किस कपड़े की बनी हो, इसके विषयमें हुक्म निकालनेकी बात तो अक्लके बाहरकी है। यह देखकर कष्ट होता है कि ऐसे सरकारी नौकर हैं जो काल्पनिक भयसे घबराया करते हैं। मैंने कितने ही सरकारी नौकरोंको बिना किसी रोक-टोकके खद्दर पहनते देखा है। अगर में मद्रास सरकारका नौकर होता तो जरूर बेहिचक खादी