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२३२. पत्र : आश्रमकी बहनोंको

काशी
 
मौनवार, पौष सुदी ६ [१० जनवरी, १९२७]
 

बहनो,

चि० राधाका लिखा हुआ पत्र मुझे कल ही मिला। मैं देखता हूँ कि तुम्हारी सात बजेकी प्रार्थना नियमसे हो रही है और उसमें सबको आनन्द आता है। इससे मुझे खुशी होती है। काकासाहबका कहना ध्यान में रखने लायक है । 'हाँ' या 'ना' कहकर बैठे रहने के बजाय हमें उसके कारण समझने और समझाने की शक्ति पैदा करनी चाहिए ।

कल श्रद्धानन्दजीका श्रद्धांजलि दिवस था । पं० मालवीयजी अभी काशीमें ही हैं। उन्होंने अन्त समयपर कहलवाया कि गंगाघाट नहाने जाना है और वहाँ अंजलि देनी है। मैं तैयार हो गया और राष्ट्रीय विद्यापीठके विद्यार्थी, जो मुझसे मिलने आये थे, उन्हें साथ ले लिया। दो-दोकी कतार बाँधकर हम निकल पड़े। मालवीयजी शामिल हो गये और हमारा जुलूस बढ़ता गया। गंगाघाटका वर्णन करनेका तो मुझे समय नहीं है। यह दृश्य भव्य है। घाटपर में जितनी चाहता हूँ उतनी सफाई नहीं है ।

स्नान करके हम काशी विश्वनाथके दर्शनोंके लिए गये । वहाँका शेष वर्णन तो शायद महादेव करेगा। जर्मन बहन हमारे साथ थीं। उन्हें घुसने देंगे या नहीं, इस बारेमें शक था । वह बहन बौद्ध है, इसलिए हिन्दू मानी जायेगी। उसे कोई कैसे रोक सकता है ? उसे रोकेंगे तो मुझे नहीं जाना है, यह मैंने सोच रखा था। मगर पंडेको यह बतानेपर कि वह हिन्दू है, वह चुप हो गया ।

काशी विश्वनाथकी गलीकी गन्दगीकी तो क्या बात लिखूं ?

बापूके आशीर्वाद
 

गुजराती पत्र (जी० एन० ३६३४) की फोटो-नकलसे ।

१. ऐसा लगता है कि पौष सुदी ७ की जगह भूलसे पौंष सुदी ६ लिख दिया गया है क्योंकि मौनवार पौष सुदी ७ को था।