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२३३. पत्र : मणिलाल गांधीको

काशी
 
सोमवार [१० जनवरी, १९२७]
 

चि० मणिलाल,

तुम्हारा पत्र मिला। बा उसे भले पढ़ ले। अभीतक तो वह मैंने उसे पढ़नेके लिए दिया नहीं है, लेकिन देनेका विचार रखता हूँ। तुमने यदि हरिलालको दस रुपये भी न दिये होते तो उसपर उपकार होता। लेकिन तुमने दिये इसकी चिन्ता नहीं है। इसे मैं बड़ी भूल नहीं मानता। अनेक बार कठोरता ही सच्ची दया सिद्ध होती है और कोमलता निर्दयताका काम करती है। यदि सारा जगत शुद्ध हृदयसे हरिलालके प्रति कठोर बन जाये तो उसकी आँखें अभी खुल जायें। लेकिन चूंकि सब लोग दोषोंसे भरे हुए हैं इसलिए शुद्ध कठोरता नहीं दिखा सकते। हम स्वयं दयाके इच्छुक हैं। इसीलिए दूसरेके प्रति झूठी दया दिखाते हैं। तुमने हरिलालको दस रुपये दिये, इसके लिए मैं तुम्हें डाँट नहीं रहा हूँ बल्कि ज्ञान दे रहा हूँ। अभी तुम्हें अनेक बार कसौटीपर चढ़ना होगा ।

तुम्हारे लिए व्यवस्था कर रहा हूँ। तुम निश्चिन्त रहो लेकिन योग्य बनो। एक पल भी व्यर्थ न गँवाना शक्ति हो तो 'यंग इंडिया' अथवा 'नवजीवन' के लिए ई० आ० के विषयमें लेख लिखकर मुझे तुरन्त भेजना ।

बापूके आशीर्वाद
 

गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० १११८) से ।

सौजन्य : सुशीलावहन गांधी

२३४. पत्र : मीराबहनको

१० जनवरी, १९२७
 

चि० मीरा,

तुम्हारा वह पत्र मिल गया, जिसमें तुमने हकीमजीके साथ गाड़ीमें घूमनेका वर्णन किया है। मुझे इसमें कोई एतराज नहीं है कि तुम ब्रजकिशनजीके यहाँ स्वा- दिष्ट भोजन खा लो या हकीमजीसे पान ले लो । हकीमजीने तुम्हें पानके लिए लुभाया, इसका मुझे दुःख है। वह बुरी चीज है और उन्हें चाहिए था कि वे तुम्हें पान हरगिज न देते। परन्तु रायें अलग-अलग होती हैं। स्पष्ट है कि वे इसे निर्दोष सम- झते हैं। फिर भी स्वादिष्ट भोजन और पानका स्वाद लेनेको उचित ठहरानेके लिए

१. सोमवार १० जनवरी, १९२७ को गांधीजी बनारसमें थे।