उन्होंने कहा कि मैं हिन्दू सभाको खद्दरके लिए और अस्पृश्यता निवारणके लिए काम करनेपर धन्यवाद देता हूँ। मैंने पहले भी एक बार आपको बताया है कि अस्पृ- श्यता हिन्दू धर्मका अंग नहीं है। इस पापके लिए आपको संसारके आगे शर्मसे सिर झुकाना चाहिए । 'गीता' आपको उपदेश देती है कि मनुष्यको ब्राह्मण और चांडालमें भेदभाव नहीं बरतना चाहिए। मैं उस श्लोकका यही अर्थ निकालूंगा कि मनुष्यको ब्राह्मण और चांडाल की एक समान सेवा करनी चाहिए और किसीसे भी घृणा नहीं करनी चाहिए। हिन्दू धर्मके अनुसार केवल चार ही वर्ण हैं; पाँचवाँ वर्ण हो ही नहीं सकता।
भाषण जारी रखते हुए उन्होंने कहा कि शुद्धि मेरे लिए आत्मशुद्धिका पर्याय है। अस्पृश्योंसे स्नेह करके आप यह शुद्धि-कर्म कर सकते हैं। स्वामी श्रद्धानन्दजीने धर्मके लिए प्राण त्यागे हैं। उनके जीवनको एक उत्कट आकांक्षा अछूतोद्धार करनेकी थी। कमसे-कम उन महान् स्वामीजीकी खातिर आपको यह बुराई मिटा ही देनी चाहिए। निश्चय ही, स्वामीजी शुद्धिका जो मतलब लगाते थे, उसके सम्बन्धमें स्वामीजीके साथ मेरा ईमानदारीसे मतभेद था। उन्होंने कहा :
मैंने इस तथ्यको छिपाया नहीं है कि मैं 'शुद्धि' कार्यके सभी पहलुओंका अनुमोदन नहीं करता हूँ | हिन्दू-शास्त्रोंका श्रद्धापूर्वक अध्ययन करके मैं इस निष्कर्ष- पर पहुँचा हूँ कि उनमें धर्म परिवर्तनकी वैसी कोई गुंजाइश नहीं है जैसी कि इस्लाम और ईसाई धर्मोमें है। 'कुरान' का श्रद्धापूर्वक अध्ययन करनेके बाद मुझे यह भी विश्वास हो गया है कि उसमें वैसी तबलीगकी कोई इजाजत नहीं दी गई है जिसे आज बढ़ावा दिया जा रहा है। हो सकता है कि मैं गलती कर रहा होऊँ । वैसी दशामें ईश्वर मेरी भूल सुधार दे । जहाँतक मेरा अपना सवाल है, मैं अपने धर्मकी रक्षा तपश्चर्या द्वारा करूँगा जो प्रार्थनामय कष्टसहनका पथ है, जो किसी भी महान उद्देश्य तक ले जानेवाला राजपथ है। हिन्दू लोग हिन्दू धर्मको अस्पृश्यताके अभिशापसे मुक्त करा- कर स्वामीजीका सच्चा स्मारक बना सकते हैं। स्वामीजीके बलिदानके पावन रक्तसे हिन्दू-मुसलमान दोनोंको अपने हृदय धो डालने चाहिए। मुझे अपनी इच्छानुसार 'गीता' या 'कुरान' पढ़नेकी स्वतन्त्रता होनी चाहिए । हिन्दू मुझे 'गीता' या मुसलमान मुझे 'कुरान' पढ़नेको क्यों मजबूर करें ? 'बाइबिल' पढ़ने के लिए मुझे किसी ईसाई द्वारा मजबूर किये जाने की क्या जरूरत है ? किसी भी व्यक्ति और उसके धर्म तथा परमेश्वरके बीच किसीको बाधा बनकर खड़ा होने का हक नहीं है। जिस व्यक्तिको धर्मकी कोई कल्पना ही नहीं है, जिसका हृदय शुष्क और अपवित्र है, वह दूसरोंको (धर्मान्तरित
१. ' विद्याविनथसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ "
गोता, ५-१८
२. इसके बादका अनुच्छेद यंग इंडिया में प्रकाशित महादेव देसाई द्वारा लिखित “साप्ताहिक पत्र "से लिया गया है।