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२९. पत्र : तुलसी मेहरको

शनिवार, कार्तिक शुक्ल ८, १९८३ [ १३ नवम्बर, १९२६ ]

चि० तुलसी महेर,

तुमारे खत आते हैं। किसी पत्र आश्रमवासीयोंको सुनाता हूँ। स्वप्न अच्छा था; उसमें जो तुमने सुना उससे ज्यादाह कुछ भी मैं नहिं कह सकता। इतना हि हो जाय तो काफी। तबीयत अच्छी होगी। नेपालमें गैयां और भैंसें रहती हैं क्या? जिस खतपर लीखते हो वह हाथका बना हुआ है। वहां बनता है या बहारसे आता है। उसका क्या दाम होता है? भणसाली भाईके ४० चालीस उपवास सोमवारको पूरे होंगे। तबीयत बहोत अच्छी है।

बापूके आशीर्वाद

मूल पत्र ( जी० एन० ६५२८ ) की फोटो - नकलसे।

३०. क्या यह जीवदया है? - ६

एक मित्रने एक लम्बा लेख लिखकर अनेक प्रश्न उठाये हैं और अपनी शंकाओंको अभिव्यक्त किया है। उन्होंने शुद्धभावसे अपनी शंकाएँ प्रस्तुत की हैं। इस लेख मालावाले 'नवजीवन' के अंकोंको भी उन्होंने अपनी टिप्पणियों सहित भेजा है। मैं मानता हूँ कि इनके लेखमें उठाये गये अनेक प्रश्नोंका समाधान तो हो चुका तथापि प्रश्नोंके समुचित उत्तर में यहाँ दे रहा हूँ।

मुझे लगता है कि इन प्रश्नोंपर में तटस्थ भावसे विचार कर रहा हूँ। मुझसे हिंसाका पक्षपात तो हो ही नहीं सकता। अपने मतामतोंका भी मुझे कोई पक्षपात नहीं है। पक्षपात तो मुझे सत्यका ही है और उसकी खोज मुझे अहिंसक मार्गसे ही करनी है। दूसरे मार्गसे वह कदापि नहीं मिल सकता, ऐसा मैंने अनुभव किया है। सत्य ही परम उद्दिष्ट है या नहीं और अहिंसा परम धर्म है अथवा नहीं, यह बात मेरे लिए विवादग्रस्त नहीं है। इसके बारेमें अपने मनमें शंका उठनेकी सम्भावना तक में नहीं मानता। लेकिन उसका पालन कैसे हो मेरे सम्मुख हमेशा यह प्रश्न रहता है। प्रतिक्षण नवीनताएँ दिखाई देती हैं। उसके पालनमें भूलोंका होना में अवश्य ही सम्भव मानता हूँ। वैसी भूलोंसे बचनेके लिए मैं बहुत जाग्रत रहता हूँ। फिर भी झपकी आ सकती है। इसलिए यदि किन्हीं मित्रोंका विरुद्ध मत मुझे मान्य न हो तो वे मुझे दुराग्रही न मानें अपितु नासमझ जानकर क्षमा करें और धीरज रखें।