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क्या यह जीवदया है?-६

मैं मानता हूँ कि हो सकता है और इस बारेमें दो मत नहीं हो सकते, ऐसा मैं अब भी मानता हूँ। वैसी परिस्थिति किसी समय है या नहीं, इसके सम्बन्धमें मतभेद हो सकता है लेकिन इतना समझ लेना काफी है कि ऐसे अवसर बहुत ही कम होते हैं।

१०. लेकिन मुझे एक मतभेद अवश्य दिखाई दे रहा है। जिनकी शंकाओंका समाधान करते हुए मैं यह लेख लिख रहा हूँ उनके लेखोंमें और अन्य अनेक लेखों में यह देखता हूँ कि उनके लेखकोंको देहके आत्यंतिक विनाशकी बात, हर अवसरपर, भयंकर मालूम होती है। उदाहरणके लिए वे पागल कुत्तोंको एक स्थानपर बन्द कर उन्हें कष्ट सहते हुए मरने देनेका सुझाव देते हैं, जबकि मेरी दयाभावना इस बातको कदापि स्वीकार नहीं कर सकती। मैं कुत्तोंको अथवा मनुष्योंको तड़पता हुआ नहीं देख सकता। तड़पते हुए मनुष्यको मैं मारता नहीं क्योंकि मेरे पास उसके लिए आशा-जनक उपचार है। किन्तु मैं तड़पते हुए कुत्तोंको मारनेके लिए राजी हूँ क्योंकि उनके लिए मेरे पास कोई आशाजनक उपचार नहीं है। मेरे बच्चेको पागल कुत्तेके काटने से होनेवाला रोग हो जाये और उसके रोगके निवारणके लिए मेरे पास आशाजनक इलाज न हो और वह कष्टसे तड़प रहा हो तो उसकी देहका अन्त करना मैं धर्म समझूँगा। दैवपर आधार रखनेकी भी एक सीमा है। सारे प्रयत्न कर चुकनेके बाद ही हम दैवाधीन बनते हैं। तड़पते हुए बालकके लिए अनेक उपचारोंमें अन्तिम उपचार देहमुक्त करनेका भी है।

लेकिन इस चर्चाको में फिलहाल लम्बा नहीं खींचना चाहता। मेरी दृष्टिमें तो जो अहिंसा-धर्मियोंकी कमजोरी है वही इस धर्मको ठीक रूपमें समझने में अन्तराय है। इसलिए मैं विनती करता हूँ कि इस मतभेदको सहन कर लिया जाये।

यह तो हुआ एक विवेकी मित्रके प्रश्नोंके बारेमें; आइए अब एक क्रोधी मित्रके प्रश्नोंपर विचार करें:

हमें तो लगता है कि आप पाश्चात्य देशके वातावरणमें बहुत कालतक रहे हैं, आपने उसके साहित्यका अध्ययन किया है और उसके संस्कार आपके हृदयमें घर कर गये हैं, इसीसे आप मनुष्यके प्रति दयाभाव रखकर प्राणियोंकी जान लेना ज्यादा इष्ट समझते हैं। इसलिए आप बहुत शान्तिसे सोच-विचार कर अपनी भूल स्वीकार करें और संसारसे क्षमा माँगे। संसारमें महापुरुष माने जानेवाले व्यक्तिका यह कर्त्तव्य है। आपको अत्यन्त सूक्ष्मतासे विचार करनेके बाद ही जो इष्ट हो वह करना चाहिए लेकिन आपने तो चर्चाको बहुत तूल देकर अपने नामको बट्टा लगाया है।

इस तरहके पत्रों में से मैंने यह एक अपेक्षाकृत सौम्य वाक्य उद्धृत किया है। मैंने विचार किये बिना अपनी राय देनेमें उतावली की है, ऐसी बात नहीं है। जो मनुष्य अपना मत स्थिर करते हुए अपने बड़प्पनका विचार करता है वह सत्यका निर्णय नहीं कर सकता। उसके सामने तो उसका बड़प्पन होता है और यह सत्यका दर्शन करने में विघ्नरूप होता है।