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राजाओं और रानियोंकी कलाएँ

आवरणसे शोभित नहीं की जा सकती थीं, क्या सभी नारियोंकी कंचुकियाँ मोहक सुनहरे रंगों से रंजित नहीं हो सकती थीं? हमने किया क्या है? लगता है कि हमारे पास इतनी अँगुलियाँ ही नहीं हैं कि हम अपना तन ढकने लायक मोटा-झोटा कपड़ा भी पर्याप्त मात्रामें बुन लेते। नदियोंके प्रवाहका उपयोग करके और धुंआ उगलती चिमनियाँ खड़ी करके हमने चरखोंको शक्ति- चालित बना दिया है, पर क्या हम अपने लिये पर्याप्त वस्त्र सुलभ कर पाये हैं? क्या यूरोपकी राजधानियोंकी सड़कोंपर फटे-पुराने और जीर्णशीर्ण वस्त्रोंकी बिक्रीके अशोभनीय दृश्य दिखलाई नहीं पड़ते? क्या आपके प्यारे-प्यारे नन्हें- मुन्नोंका सौन्दर्य वस्त्रहीनतासे कलंकित नहीं दिखाई पड़ता — जब कि प्रकृति चिड़ियोंके कोटरों में उनके सुकुमार शावकों और भेड़ियोंकी गुफाओंमें उनके स्तनपायी नवजातोंको कहीं अधिक शोभा और शालीनता के साथ मोहक आवरणोंसे सुसज्जित कर देती है। और क्या शीत ऋतुका हिम हर बार ऐसी प्रत्येक वस्तुको आवृत नहीं कर देता जिसे आप अनावृत छोड़ देते हैं और हर ऐसे प्राणीको कफन नहीं ओढ़ा देता जिसे आप कफनतक नहीं दे पाते; और क्या शीत ऋतुकी बर्फानी हवा हर बार कुछ निरीह प्राणियोंको परमधाम नहीं पहुँचा देती, जो ईश्वरके समक्ष आपके विरुद्ध साक्षी देंगे और ईसा मसीहकी इस गुहारको गुंजा देंगे कि 'मैं नंगा था और तुमने मुझे वस्त्र नहीं पहिनाये?

पत्र-लेखकने इसपर टीका की है:

दोषारोपण सचमुच बड़ा ही तिक्त है, पर उन्होंने कितने आग्रहके साथ चरखेको अपनाने की बात कही है। यदि वे (रस्किन) यूरोप जैसे समृद्ध देशके लिए इसे इतना ठीक बतलाते हैं, तो भारत जैसे देशके लिए तो, जो निर्विवाद रूपसे कहीं अधिक निर्धन है, यह सचमुच ही ठीक है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १८-११-१९२६