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धीरजसे काम लें, और जबतक कोसकी माँग पूरी करनेके लिए सारा आवश्यक प्रबन्ध पूरा नहीं हो जाता, इन्तजार करें। कोशिश की जा रही है कि कोसका उत्पादन राष्ट्रीय भावनासे हो। इसलिए कमसे कम लागतपर इनका उत्पादन करानेके लिए अलग-अलग लोगोंसे उनकी दरें माँगी जा रही हैं।

पत्र-लेखक मुझे पत्रोंका अलग-अलग जवाब न देनेके लिए क्षमा करेंगे। जो प्रश्न किये गये हैं, उनमें से कुछका जवाब में नीचे देता हूँ:

१. जो कोशिशें की जा रही हैं, वे पूरी हो गई तो कोसके बारेमें जानकारी देते हुए उसकी आकृति स्पष्ट करनेवाला चित्र छापा जायेगा।

२. कोसके पुर्जे बिलकुल भी जटिल नहीं हैं; बल्कि एकदम सीधे सादे हैं। निस्सन्देह उसकी बनावट गाँवोंकी आवश्यकताओंके अनुरूप ही है।

३. लोहेकी थोड़ी रेल (लोहेकी पटरी), गरारियाँ और बँटा हुआ तार शहरोंसे मँगाना पड़ेगा।

४. कोस कई सालतक काम दे सकेगा। डोल और रस्सी शायद कुछ जल्दी-जल्दी बदलना पड़े।

५. कोसमें मरम्मतकी जरूरत पड़नेपर जहाँतक मैं समझता हूँ, गाँवोंके मामूली लोहार उसे ठीक कर लेंगे।

६. कोसको किसी होशियार मिस्त्रीके द्वारा लगवाना चाहिए। वजन, ढाल आदिका खयाल रखना पड़ेगा। लोहेकी पटरी मजबूतीसे जमाई जानी चाहिए। गरारीको बिलकुल ठीक जगह लगाया जाना चाहिए। लेकिन मैं समझता हूँ कि एक मामूली होशियार आदमीको यह आसानीसे और जल्दी ही सिखाया जा सकता है। मिस्त्रीको सफर-खर्च आदि देना होगा। तफसीलकी इन सारी बातोंपर विचार किया जा रहा है।

७. कमसे कम खर्च पड़नेकी दृष्टिसे काममें लाया जानेवाला भैंसा भारी होना चाहिए। भैंसा जितना ही भारी होगा, उतनी ही आसानीसे पानी खिच सकेगा।

८. खाली होनेपर ट्राली डोलके वजनसे अपने-आप वापस चली जायेगी।

९. मोटे तौरपर डोलका वजन ४० पौंड और ट्रालीका वजन १०० पौंड है। (ट्राली बिछाई गई पटरीपर लुढ़कती है और भैंसा उसीमें जोता जाता है।)

१०. कोसका इस्तेमाल गहरेसे गहरे कुएँ में हो सकता है। यहाँतक कि १२५ फुट गहरे कुएँ में भी अर्थात् जहाँ-जहाँ मामूली मोट काम देता है, वहां यह भी काम देगा।

खादीकी बिक्री

यथेष्ट प्रकार होनेतक खादीकी विक्रीकी समस्या, यदि अधिक नहीं तो खादीके उत्पादनके बराबर महत्त्वकी तो है ही। अभीतक बिक्रीकी रफ्तार, उत्पादनकी रफ्तारसे कम रही है। बिक्रीके लिहाज से सबसे सुसंगठित प्रान्त बेशक बंगाल ही है। डा० राय और उनके सहायक सतीशचन्द्र दासगुप्त द्वारा स्थापित संस्था खादी प्रतिष्ठानने जो मिसाल कायम की, बंगालके अन्य संगठनोंने बराबर वही स्तर कायम रखा है। स्थानीय आवश्यकताओंके अनुसार खादीका उत्पादन करनेमें भी बंगालने